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द्वितीय शतक : उद्देशक-१]
[१८५ भक्तप्रत्याख्यान मरण दो प्रकार कहा गया है। वह इस प्रकार है-निर्हारिम और अनिर्हारिम। यह दोनों प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान-मरण नियम से सप्रतिकर्म होता है। यह है—भक्तप्रत्याख्यन का स्वरूप।
३०. इच्चेतेणं खंदया! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ जाव वीईवयति। से त्तं मरमाणे हायइ हायइ। से त्तं पंडियमरणे।
[३०] हे स्कन्दक! इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरता हुआ जीव नारकादि अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता; यावत्.....संसाररूपी अटवी का उल्लंघन (पार) कर जाता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है। यह है—पण्डितमरण का स्वरूप!
३१. इच्चेएणं खंदया! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढइ वा हायति वा।
[३१] हे स्कन्दक! इन दो प्रकार (बालमरण और पण्डितमरण) के मरणों से मरते हुए जीव का संसार (क्रमशः) बढ़ता और घटता है।
विवेचन भगवान् द्वारा स्कन्दक की मनोगत शंकाओं का समाधान प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (२१ से ३१ तक) में स्कन्दक परिव्राजक के भगवान् महावीर के पास जाने से लेकर भगवान् द्वारा उसकी मनोगत शंकाओं का विश्लेषणपूर्वक यथार्थ समाधान पर्यन्त का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसका क्रम इस प्रकार है
(१) प्रथम दर्शन में ही स्कन्दक का भगवान् के अतीव तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित, चित्त में हर्षित एवं सन्तुष्ट होना तथा भगवान् के प्रति प्रीति उत्पन्न होना। उसके द्वारा भगवान् की प्रदक्षिणा, वन्दना, यावत् पर्युपासना करना। (२) भगवान् द्वारा स्कन्दक के समक्ष उसकी मनोगत बातें प्रकट करना; (३) तत्पश्चात् एक-एक करके स्कन्दक की पूर्वोक्त पांचों मनोगत शंकाओं को अभिव्यक्त करते हुए भगवान् द्वारा विश्लेषणपूर्वक अनेकान्त दृष्टि से समाधान करना।
भगवान् द्वारा किये गये समाधान का निष्कर्ष (१) लोक द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा सान्त है तथ काल और भाव की अपेक्षा अनन्त है। (२) जीव भी इसी प्रकार है। (३-४) यही समाधान सिद्धि
और सिद्ध के विषय में है। (५) मरण दो प्रकार के हैं—बालमरण और पण्डितमरण। विविध बालमरणों से जीव संसार बढ़ाता है और द्विविध पण्डितमरणों से घटाता है।
नीहारिमे-अनीहारिमे निर्हारिम और अनिर्दारिम, ये दोनों भेद पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान इन दोनों के हैं। निर्हार शब्द का अर्थ है-बाहर निकलना। निर्हार से जो निष्पन्न हो, वह निर्हारिम है। अर्थात् जो साधु उपाश्रय में ही (पूर्वोक्त दोनों पण्डितमरणों में से किसी एक से) मरण पाता है-अपना शरीर छोड़ता है। ऐसी स्थिति में उस साधु के शव को उपाश्रय से बाहर निकालकर संस्कारित किया जाता है, अतएव उस साधु का उक्त पण्डितमरण 'निर्हारिम' कहलाता है। जो साधु अरण्य आदि में ही अपने शरीर को छोड़ता है—पण्डितमरण पाता है। उसके शरीर (शव) को कहीं बाहर नहीं निकाला जाता, अतः उक्त साधु का वैसा पण्डितमरण 'अनि रिम' कहलाता है।