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द्वितीय शतक : उद्देशक - १]
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च जाव धातुरत्ताओ य एगंते एडेइ, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता जाव नमंसित्ता एवं वदासी—
आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते! लोए जराए मरणेण । से जहानामए केइ गाहावती अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अप्पसारे मोल्लगरुए तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमइ, एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसार आणुगामियत्ताए भविस्सइ । एवामेव देवाणुप्पिया! मज्झ वि आया एगे भंडे इट्ठे कंते पिए मणुन्ने मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीतं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं वाला, माणं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु ति कट्टु, एस मे नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव आयार - गोयर - विणय - वेणइयचरण- करण-जाया- मायावत्तियं धम्ममाइक्खिअं ।
`[३४] तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक श्रमण भगवान् महावीर के श्रीमुख धर्मकथा सुनकर एवं हृदय में अवधारण करके अत्यन्त हर्षित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया । तदनन्तर खड़े होकर और श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तीन वर प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा—' भगवन् ! निर्गन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा करता हूँ, निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं प्रतीति करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मुझे रुचि है, भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन में (प्रव्रजित होने के लिए) अभ्युद्यत होता हूँ ( अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार करता हूँ) । हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह तथ्य है, यह सत्य है, यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह मुझे इष्ट है, प्रतीष्ट है, इष्ट-प्रतीष्ट है । हे भगवन्! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है ।' यों कह कर स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया। ऐसा करके उसने उत्तरपूर्व दिशा-भाग (ईशानकोण) में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिये। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आकर भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा—
'भगवन् ! वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी अग्नि से यह लोक (संसार) आदीप्त- प्रदीप्त (जल रहा है, विशेष जल रहा है) है, वह एकदम जल रहा है और विशेष जल रहा । जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्पभार (वजन) वाले सामान को पहले बाहर निकालता है, और उसे लेकर वह एकान्त में जाता है। वह यह सोचता है—' ( अग्नि में से बचाकर) बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे-पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप एवं साथ चलने वाला (अनुगामीरूप) होगा।' इसी तरह हे देवानुप्रिय भगवन्! मेरा आत्मा भी एक भाण्ड ( सामान) रूप है। यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर,