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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक - १] [ १७५ हुआ, (इन प्रश्नों के उत्तर कैसे दूँ ? मुझे इन प्रश्नों का उत्तर कैसे आयेगा ? इस प्रकार की ) कांक्षा उत्पन्न हुई; उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई (कि अब मैं जो उत्तर दूँ, उससे प्रश्नकर्ता को सन्तोष होगा या नहीं ? ); उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ (कि मैं क्या करूं ?) उसके मन में कालुष्य (क्षोभ) उत्पन्न हुआ (कि अब मैं तो इस विषय में कुछ भी नहीं जानता ), इस कारण वह तापस, वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका। अतः चुपचाप रह गया। १५. एणं से पिंगलए नियंठे वेसालीसावए खंदयं कच्चायणसगोत्तं दोच्चं पि तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छे—मागहा ! किं सअंते लोए जाव केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढइ वा हायति वा ? एतावं ताव आइक्खाहि वुच्चमाणे एवं । [१५] इसके पश्चात् उस वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो बार, तीन बार भी उन्हीं प्रश्नों का साक्षेप पूछा कि मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? यावत् किस मरण से मरने से जीव बढ़ता या घटता है ?, इतने प्रश्नों का उत्तर दो। १६. तए णं से खंदए कच्चाणसगोत्ते पिंगलएणं नियंठेणं वेसालीसावरणं दोच्चं प तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिंच्छिए भेदसमावण्णे कलुससमावन्ने नो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालिसावयस्स किंचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणीए संचिट्ठ | [१६] जब वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो-तीन बार पुनः उन्हीं प्रश्नों को पूछा तो वह पुनः पूर्ववत् शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन्न तथा कालुष्य (शोक) को प्राप्त हुआ, किन्तु वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका। अतः चुप होकर रह गया । विवेचन पिंगलक निर्ग्रन्थ के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिव्राजक प्रस्तुत सात सूत्रों में मुख्य प्रतिपाद्य विषय श्रावस्ती के पिंगलक निर्ग्रन्थ द्वार स्कन्दक परिव्राजक के समक्ष पांच महत्त्वपूर्ण प्रश्न प्रस्तुत करना और स्कन्दक परिव्राजक का शंकित, कांक्षित आदि होकर निरुत्तर हो जाना है। इसी से पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने के लिए शास्त्रकार ने निम्नोक्त प्रकार से क्रमशः प्रतिपादन किया है १. श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह से बाहर अन्य जनपदों में विहार । २. श्रमण भगवान् महावीर का कृतंगला नगरी में पदार्पण और धर्मोपदेश । ३. कृतंगला की निकटवर्ती, श्रावस्ती नगरी के कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक का परिचय । ४. श्रावस्ती नगरी में स्थित वैशालिक श्रवणरसिक पिंगलक निर्ग्रन्थ का परिचय | ५. पिंगलक निर्ग्रन्थ द्वारा स्कन्दक परिव्राजक के समक्ष उत्तर के लिए प्रस्तुत निम्नोक्त पाँच प्रश्न (2२- ३-४) लोक, जीव, सिद्धि और सिद्ध सान्त है या अन्तरहित और (५) किस मरण से मरने पर जीव का संसार बढ़ता है, किससे घटता है ? ६. पिंगलक निर्ग्रन्थ के प्रश्न सुनकर स्कन्दक का शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन्न और कालुष्ययुक्त तथा उत्तर देने में असमर्थ होकर मौन हो जाना । ७. पिंगलक द्वारा पूर्वोक्त प्रश्नों को दो-तीन बार दोरहाये जाने पर भी स्कन्दक परिव्रजाक के द्वारा
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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