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________________ १७६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पूर्ववत् निरुत्तर होकर मौन धारण करना। नो संचाएइ.....पमोक्खमक्खाइउं—प्रमोक्ष-उत्तर (जिससे प्रश्नरूपी बन्धन से मुक्त हो सके वह-उत्तर) कह (दे) न सका। वेसालियसावए-विशाला=महावीरजननी, उसका पुत्र वैशालिक भगवान्, उनके वचन-श्रवण का रसिक-श्रावक धर्म-श्रवणेच्छुक। स्कन्दक का भगवान् की सेवा में जाने का संकल्प और प्रस्थान १७. तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जाव महापहेसु महया जणसम्महे इ वा जणवूहे इ वा परिसा निग्गच्छइ। तए णं तस्स खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—'एवं खलु समणे भगवं महावीरे, कयंगलाए नयरीए बहिया छत्तपलासए चेइए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं गच्छामि णं, समणं भगवं महावीरं वंदामि नमसामि सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता णमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणित्ता कल्लाणं मंगलं देवतं चेतियं पज्जुवासित्ता इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाइं वागरणाइं पुच्छित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, २ जेणेव परिव्वायावसहे तेणेव उवागच्छइ, २ त्ता तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं च करोडियं च भिसियं च केसरियं च छन्नालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हइत्ता परिव्वायावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तिदंड-कुंडिय-कंचणिय-करोडियभिसिय-के सरिय-छन्नालय-अंकु सय-पवित्तय-गणेत्तियहत्थगए छत्तोवाहणसंजुत्ते धाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नगरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। [१७] उस समय श्रावस्ती नगरी में जहाँ तीन मार्ग, चार मार्ग और बहुत-से मार्ग मिलते हैं, वहाँ तथा महापथों में जनता की भारी भीड़ व्यूहाकार रूप में चल रही थी, लोग इस प्रकार बातें कर रहे थे कि 'श्रमण भगवान् महावीरस्वामी कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में पधारे हैं।' जनता (परिषद्) भगवान् महावीर को वन्दना करने के लिए निकली। उस समय बहुत-से लोगों के मुँह से यह (भगवान् महावीर के पदार्पण की) बात सुनकर और १. भगवतीसूत्र मूलपाठ-टिप्पणयुक्त (पं बेचरदास जी संपादित) भा. १, पृ.७६ से ७८ तक २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ११४ ३. वही, अ. वृत्ति, पत्रांक ११४-११५ ४. भगवतीसूत्र, अ.वृत्ति, पत्रांक ११४-११५ में यहाँ अन्य पाठ भी उद्धृत है "जणबोले इ वा, जणकलकले इ वा, जणुम्मी इ वा, जणुक्कलिया इ वा, जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४-एवं खलु देवाणुप्पिया समणे ३ आइगरे जाव संपाविउकामे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुगामं दुइज्जमाणे कयंगलाए नगरीए छत्तपलासए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं......जाव विहर।"
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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