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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [१७३ __ मृतादी—'मडाई' शब्द की संस्कृत छाया 'मृतादी' होती है; जिसका अर्थ है—मृत-निर्जीव प्रासुक, अदी-भोजन करने वाला। अर्थात् प्रासुक और एषणीय पदार्थ को खाने वाला निर्ग्रन्थ अनगार 'मडाई' कहलाता है। अमरकोश के अनुसार 'मृत' शब्द 'याचित'१ अर्थ में है। अतः मृतादी का अर्थ हुआ याचितभोजी। 'णिरुद्धभवे' आदि पदों के अर्थ-णिरुद्धभवे जिसने आगामी जन्म को रोक दिया है, जो चरमशरीरी है। णिरुद्धभवपवंचे-जिसने संसार के विस्तार को रोक दिया है। पहीणसंसारे-जिसका चतुर्गतिभ्रमणरूप संसार क्षीण हो चुका है। पहीणसंसारवेयणिज्जे-जिसका संसारवेदनीय कर्म क्षीण हो चुका है। वोच्छिण्णसंसारे-जिसका चतुर्गतिकसंसार व्यवच्छिन्न हो चुका है। इत्थत्थं-इस अर्थ को अर्थात् अनेक बार तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारकगति-गमनरूप बात को। इत्थत्तं' पाठान्तर भी है, जिसका अर्थ है—मनुष्यादित्व आदि। 'इत्थत्तं का तात्पर्य आचार्यों ने बताया है जिसके कषाय उपशान्त हो चुके हैं, ऐसा जीव भी अनन्त प्रतिपात को प्राप्त होता है। इसलिए कषाय की मात्रा थोड़ी-सी भी शेष रहे, वहाँ तक मोक्षाभिलाषी प्राणी को विश्वस्त नहीं हो जाना चाहिए। पिंगल निर्ग्रन्थ के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिव्राजक १०. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। [१०] उस काल और उस समय में (एकदा) श्रमण भगवान् महावीरस्वामी राजगृह नगर के गुणशील चैत्य (उद्यान) से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। ११. लेणं कालेणं तेणंसमएणं कयंगला नामनगरी होत्था।वण्णओ।तीसेणं कयंगलाए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे छत्तपलासए नामंचेइए होत्था।वण्णओ।तए णं समणे भगवं महवीरे उप्पण्णनाण-दसणधरे जाव समोसरणं। परिसा निगच्छति। ___ [११] उस काल उस समय में कृतंगला नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। उस कृतंगला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्वदिशा भाग (ईशान कोण) में छत्रपलाशक नाम का चैत्य था। उसका वर्णन भी (औपपातिक सत्र के अनसार) जान लेना चाहिए। वहां किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। यावत् समवसरण (धर्मसभा) हुआ (लगा)। परिषद् (जनता) धर्मोपदेश सुनने के लिए निकली। १२. तीसे णं कयंगलाए नगरीए अदूरसामंते सावत्थी नाम नयरी होत्था। वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामं कच्चायणसगोत्ते परिव्वायगे १. द्वे याचितायाचितयोः यथासंख्यं मृतामृते–'अमरकोश, द्वितीयकाण्ड, वैश्यवर्ग, श्लो-३ २. भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति. पत्रांक १११ ३. 'जाव' शब्द 'अरहा जिणे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं छत्तेणं' इत्यादि समवसरणपर्यन्त पाठ का सूचक है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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