SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुख-दुःख का वेदन (अनुभव) करता है, इसलिए उसे 'वेद' कहना चहिए। इस कारण हे गौतम! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को 'प्राण' यावत्-'वेद' कहा जा सकता है। ९.[१] मडाई णं भंते! नियंठे निरुद्धभवे निरुद्धभवपवंचे जाव निट्ठियट्टकरणिजे णो पुणरवि इत्तत्थं हव्वमागच्छति ? हंता, गोयमा! मडाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि इत्तत्थं हव्वमागच्छति। [२] से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया, बुद्धे त्ति वत्तव्वं सिया, मुत्ते त्ति वत्तव्वं० पारगए त्ति व०, परंपरगए त्ति व०, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्वुडे अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति वत्तव्वं सिया। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, २ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। __[९-१ प्र.] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा मृतादी (प्रासुकभोजी) अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता है ? [९-१ उ.] हाँ गौतम! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। [९-२ प्र.] हे भगवन्! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए? [९-२ उ.] हे गौतम! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्ग्रन्थ को 'सिद्ध' कहा जा सकता है, 'बुद्ध' कहा जा सकता है, 'मुक्त' कहा जा सकता है, 'पारगत' (संसार के पार पहुँचा हुआ कहा जा सकता है, 'परम्परागत' (अनुक्रम से संसार के पार पहुँचा हुआ) कहा जा सकता है। उसे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत् एवं सर्वदुःखप्रहीण कहा जा सकता है। "हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करते हैं और फिर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करके विचरण करते हैं। विवेचन—मृतादी निर्ग्रन्थ के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण प्रस्तुत दो सूत्रों (८ और ९) में प्रासुकभोजी (मृतादी) अनगार के मनुष्यादि भवों में भ्रमण का तथा भवभ्रमण के अन्त का; यों दो प्रकार के निर्ग्रन्थों का चित्र प्रस्तुत किया है। साथ ही भवभ्रमण करने वाले और भवभ्रमण का अन्त करने वाले दोनों प्रकार के मृतादी अनगारों के लिए पृथक्-पृथक् विविध विशेषणों का प्रयोग भी किया गया है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy