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________________ [१६३ प्रथम शतक : उद्देशक-१०] ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रियासम्बन्धी चर्चा २. अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा इरियावहियं च संपराइयं च। जं समयं इरियावहियं पकरेइ तं समयं संपराइयं पकरेइ०, परउत्थियवत्तव्वं' नेयव्वं। ससमयवत्तव्वयाए नेयव्वं जाव इरियावहियं वा संपराइयं वा। [२ प्र.] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं—यावत् प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है। वह इस प्रकार-ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी। जिस समय (जीव) ऐर्यापथिकी क्रिया करता है, उस समय साम्परायिकी क्रिया करता है और जिस समय साम्परायिकी क्रिया करता है, उस समय ऐर्यापथिकी क्रिया करता है। ऐर्यापथिकी क्रिया करने से साम्परायिकी क्रिया करता है और साम्परायिकी क्रिया करने से ऐर्यापथिकी क्रिया करता है। इस प्रकार एक जीव, एक समय में दो क्रियाएँ करता है—एक ऐर्यापथिकी और दूसरी साम्परायिकी। हे भगवन्! क्या यह इसी प्रकार [२ उ.] गौतम! जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, यावत्-उन्होंने ऐसा जो कहा है, सो मिथ्या कहा है। हे गौतम! मैं इस प्रकार कहता हूँ कि एक जीव एक समय में एक क्रिया करता है। यहाँ परतीर्थिकों का तथा स्वसिद्धान्त का वक्तव्य कहना चाहिए। यावत् ऐर्यापथिकी अथवा साम्परायिकी क्रिया करता है। विवेचन ऐर्यापथिकी और साम्परयिकी क्रियासम्बन्धी चर्चा–प्रस्तुत (सू०२) सूत्र में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी, दो क्रियाएँ एक समय में होती हैं, या नहीं; इसकी चर्चा अन्यतीर्थिकों का पूर्वपक्ष देकर प्रस्तुत की गई है। ऐर्यापथिकी जिस क्रिया में केवल योग का निमित्त हो, ऐसी कषायरहित-वीतरागपुरुष की क्रिया। साम्परायिकी-जिस क्रिया में योग का निमित्त होते हुए भी कषाय की प्रधानता हो ऐसी सकषाय जीव की क्रिया। यही क्रिया संसार-परिभ्रमण का कारण है। पच्चीस क्रियाओं में से चौबीस क्रियाएँ साम्परायिकी हैं, सिर्फ एक ऐर्यापथिकी है। १. परउत्थियवत्तव्वं-अन्यतीर्थिकवक्तव्य का पाठ इस प्रकार है 'जं समयं संपराइयं पकरेइ तं समयं इरियावहियं पकरेइ इरियावहियापकरणताए संपराइयं पकरेइ, संपराइयपकरणायाए इरियावहियं पकरेइ एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएण दो किरियाओ पकरेति, तं जहाइरियावहियं च संपराइयं च।' -भगवती अ.वृत्ति. २. स्वसमयवक्तव्यता के सन्दर्भ में 'जाव' पदसूचक पाठ "से कहमेयं भंते एवं? गोयमा? "जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव संपराइयं च, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु; अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि४-एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग किरियं पकरेइ तं जहा" -भगवती. अ.वृत्ति.
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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