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________________ १६२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाण कृत दुःख है। उसे कर-करके प्राण, भूत, जीव और सत्व वेदना भोगते हैं; ऐसा कहना चाहिए। विवेचन'चलमान चलित' आदि-सम्बन्धी अन्यतीर्थिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्त निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीर्थिकों की कतिपय विपरीत मान्यताओं का भगवान् महावीर द्वारा निराकरण करके स्वसिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। अन्यतीर्थिकों के मिथ्या मन्तव्यों का निराकरण (१) चलमान कर्म प्रथम क्षण में चलित नहीं होगा तो द्वितीय आदि समयों में भी अचलित ही रहेगा, फिर तो किसी भी समय वह कर्म चलित होगा ही नहीं। अतः चलमान चलित नहीं होता, यह कथन अयुक्त है। (२) परमाणु सूक्ष्म और स्निग्धतारहित होने से नहीं चिपकते, यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि एक परमाणु में भी स्निग्धता होती है, अन्यतीर्थिकों ने जब डेढ़-डेढ़ परमाणुओं के चिपक जाने की बात स्वीकार की हे, तब उनके मत से आधे परमाणु में भी चिकनाहट होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में दो परमाणु भी चिपकते हैं, यही मानना युक्ति-युक्त है। (३) 'डेढ़-डेढ़ परमाणु चिपकते हैं' यह अन्यतीर्थिक-कथन भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि परमाणु के दो भाग हो ही नहीं सकते, दो भाग हो जाएँ तो वह परमाणु नहीं कहलाएगा। (४) 'चिपके हुए पाँच पुद्गल कर्मरूप (दुःखत्वरूप) होते हैं ' यह कथन भी असंगत है, क्योंकि कर्म, अनन्तपरमाणुरूप होने से अनन्तस्कन्धरूप है और पाँच परमाणु तो मात्र स्कन्धरूप ही हैं, तथा कर्म जीव को आवृत करने के स्वभाव वाले हैं, अगर ये पाँच परमाणुरूप ही हों तो असंख्यातप्रदेशवाले जीव को कैसे आवृत कर सकेंगे? तथा (५) कर्म (दुःख) को शाश्वत मानना भी ठीक नहीं क्योंकि कर्म को यदि शाश्वत माना जाएगा तो कर्म का क्षयोपशम, क्षय आदि न होने से ज्ञानादि की हानि और वृद्धि नहीं हो सकेगी परन्तु ज्ञानादि की हानि-वृद्धि लोक में प्रत्यक्षसिद्ध है। अतः कर्म (दुःख) शाश्वत नही है। तथा आगे उन्होंने जो कहा है कि (६) कर्म (दुःख) चय को प्राप्त होता है, नष्ट होता है, यह कथन भी कर्म को शाश्वत मानने पर कैसे घटित होगा? (७) भाषा की कारणभूत होने से बोलने से पूर्व की भाषा, भाषा है, वह कथन भी अयुक्त तथा औपचारिक है। बोलते समय की भाषा को अभाषा कहने का अर्थ हुआ–वर्तमानकाल व्यवहार का अंग नहीं है, यह कथन भी मिथ्या है। क्योंकि विद्यमानरूप वर्तमानकाल ही व्यवहार का अंग है। भूतकाल नष्ट हो जाने के कारण अविद्यमानरूप है और भविष्य असद्रूप होने से अविद्यमानरूप है, अतः ये दोनों काल व्यवहार के अंग नहीं हैं। (८) बोलने से पूर्व की भाषा को भाषा मानकर भी उसे न बोलते हुए पुरुष की भाषा मानना तो और भी युक्तिविरुद्ध है। क्योंकि अभाषक की भाषा को ही भाषा माना जाएगा तो सिद्ध भगवान् को या जड़ को भाषा की प्राप्ति होगी, जो भाषक हैं, उन्हें नहीं। (९) की जाती हुई क्रिया को दुःखरूप न बताकर पूर्व की या क्रिया के बाद की क्रिया बताना भी अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि करने के समय ही क्रिया सुखरूप या दुःखरूप लगती है, करने से पहले या करने के बाद (नहीं करने से) क्रिया सुखरूप या दुःखरूप नहीं लगती। इस प्रकार अन्यतीर्थकों के मत का निराकरण करके भगवान् द्वारा प्ररूपित स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १०२ से १०४ तक
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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