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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९] [१४९ १९. से नूणं भंते! कंखा-पदोसे खीणे समणे निग्गंथे अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा, बहुमोहे वि य णं पुट्विं विहरित्ता अह पच्छा संवुडे कालं करेति तओ पच्छा सिज्झति ३ जाव अंतं करेइ ? हंता गोयमा! कंखा-पदोसे खीणे जाव अंतं करेति। [१९ प्र.] भगवन्! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम (चरम) शरीरी होता है ? अथवा पूर्वावस्था में बहुत मोह वाला होकर विहरण करे और फिर संवृत (संवरयुक्त) होकर मृत्यु प्राप्त करे, तो क्या तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [१९ उ.] हाँ, गौतम! कांक्षाप्रदोष नष्ट हो जाने पर यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन–श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त तथा अन्तकर—प्रस्तुत तीन सूत्रों (१७ से १९ तक) में से दो सूत्रों में लाघव आदि श्रमणगुणों को श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त बताया है, शेष तृतीय सूत्र में कांक्षाप्रदोषक्षीणता एवं संवृतता से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सर्वदुःखों का अन्तकर होने का निर्देश किया गया है। लाघव आदि पदों के अर्थ लाघव-शास्त्रमर्यादा से भी अल्प उपधि रखना। अल्पेच्छाआहारादि में अल्प अभिलाषा रखना। अमूर्छा-अपने पास रही उपधि में भी ममत्व (संरक्षणनुबन्ध) न रखना। अगृद्धि–आसक्ति का अभाव। अर्थात् भोजनादि के परिभोगकाल में अनासक्ति रखना। अप्रतिबद्धता-स्वजनादि या द्रव्य-क्षेत्रादि में स्नेह या राग के बन्धन को काट डालना। कांक्षाप्रदोष-अन्यदर्शनों का आग्रह-आसक्ति अथवा राग और प्रद्वेष । इसका दूसरा नाम कांक्षाप्रद्वेष भी है। जिसका आशय है—जिस बात को पकड़ रखा है, उससे विरुद्ध या भिन्न बात पर द्वेष होना। आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में अन्यमतीय एवं भगवदीय प्ररूपणा २०.अन्नउत्थियाणं भंते! एवमाइक्खंति एवं भासेंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेति "एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पगरेति, तं जहा इहभवियाउयं च, परभवियाउगं च।जंसमयं इहभवियाउगंपकरेति समयं परभवियाउगंपकरेति, समयं परभवियाउगं पकरेति तं समयं इहभवियाउगं पकरेइ; इहभवियाउगस्स पकरणयाए परभवियाउगं पकरेइ, परभवियाउगस्स पगरणताए इहभवियाउयं पकरेति। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पकरेति, तं.—इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च।" से कहमेतं भंते! एवं ? गोयमा! जंणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव परभवियाउयं च। जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउगं पकरेति, तं जहा इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा; जं समयं इहभवियाउयं पकरेति णो तं समयं परभवियाउयं पकरेति, जं समयं परभवियाउयं पकरेइ णो १. भवगतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ९७
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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