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________________ १४८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गुरु-लघु आदि की व्याख्या-गुरु का अर्थ है—भारी। भारी वस्तु होती है, जो पानी पर रखने से डूब जाती है; जैसे—पत्थर आदि। लघु का अर्थ है-हल्की। हल्की वह वस्तु है, जो पानी पर रखने से नहीं डूबती बल्कि ऊर्ध्वगामी हो; जैसे लकड़ी आदि। तिरछी जाने वाली वस्तु गुरु-लघु है। जैसे—वायु। सभी अरूपी द्रव्य अगुरुलघु हैं; जैसे—आकाश आदि। तथा कार्मणपुद्गल आदि कोईकोई रूपी पुद्गल चतुःस्पर्शी (चौफरसी) पुद्गल भी अगुरुलघु होते हैं। अष्टस्पर्शी (अठफरसी) पुद्गल गुरु-लघु होते हैं। यह सब व्यवहारनय की अपेक्षा से है। निश्चयनय की अपेक्षा से कोई भी द्रव्य एकान्तगुरु या एकान्तलघु नहीं है। व्यवहारनय की अपेक्षा से बादरस्कन्धों में भारीपन या हल्कापन होता है, अन्य किसी स्कन्ध में नहीं। निष्कर्ष निश्चयनय से अमूर्त और सूक्ष्म चतुःस्पर्शी पुद्गल अगुरुलघु हैं। इनके सिवाय शेष पदार्थ गुरुलघु हैं। प्रथम और द्वितीय भंग शून्य हैं। ये किसी भी पदार्थ में नहीं पाये जाते। हाँ, व्यवहारनय से चारों भंग पाये जाते हैं। अवकाशान्तर—चौदह राजू परिमाण पुरुषाकार लोक में नीचे की ओर ७ पृथ्वियाँ (नरक) हैं। प्रथम पृथ्वी के नीचे घनोदधि, उसके नीचे घनवात, उसके नीचे तनुवात है, और तनुवात के नीचे आकाश है। इसी कम से सातों नरकपृथ्वियों के नीचे ७ आकाश हैं, इन्हें ही अवकाशान्तर कहते हैं। ये अवकाशान्तर आकाशरूप होने से अगुरुलघु हैं।' श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त तथा अन्तकर १७. से नूणं भंते! लाघवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धता समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं? हंता, गोयमा! लाघवियं जाव पसत्थं । [१७ प्र.] भगवन्! क्या लाघव, अल्प इच्छा, अमूर्छा, अनासक्ति (अगृद्धि) और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? [१७ उ.] हाँ गौतम! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं। १८. से नूणं भंते! अकोहत्तं अमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं ? हंता, गोयमा! अकोहत्तं जाव पसत्थं। [१८ प्र.] भगवन्! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता और अलोभत्व, क्या ये श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? [१८ उ.] हाँ गौतम! क्रोधरहितता यावत् अलोभत्व, ये सब श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ९६, ९७ (ख) णिच्छयओ सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा ण विज्जए दव्वं । ववहारओ उ जुज्जइ, बायरखंधेसु ण अण्णेसु ॥१॥ अगुरुलहू चउप्फासा, अरूविदव्वा य होंति णायव्वा । सेसाओ अट्ठफासा, गुरुलहुया णिच्छयणयस्स ॥२॥
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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