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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कडाइं पट्ठविताई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाइं उदिण्णाइं, नो उवसंताई भवंति; तओ भवइ दुरूवे दुव्वण्णे दुग्गंधे दुरसे दुप्फासे अणिढे अंकते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिट्ठस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुभस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणादेज्जवयणे पच्चायाए याऽवि भवति। वण्णवज्झाणि य से कम्माइं नो बद्धाइं. पसत्थं नेतव्यं जाव आदेज्जवयणे पच्चायाए याऽवि भवति। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति.।
॥सत्तमो उद्देसो समत्तो॥ [२२] इसके पश्चात् प्रसवकाल में अगर वह गर्भगत जीव मस्तक द्वारा या पैरों द्वारा (गर्भ से) बाहर आए तब तो ठीक तरह आता है, यदि वह टेढ़ा (आड़ा) हो कर आए तो मर जाता है। गर्भ से निकलने के पश्चात् उस जीव के कर्म यदि अशुभरूप में बंधे हों, स्पृष्ट हों, निधत्त हों, कृत हों, प्रस्थापित हों, अभिनिविष्ट हों, अभिसमन्वागत हों, उदीर्ण हों, और उपशान्त न हों, तो वह जीव कुरूप, कुवर्ण (खराब वर्ण वाला) दुर्गन्ध वाला, कुरस वाला, कुस्पर्श वाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम (जिसका स्मरण भी बुरा लगे), हीन स्वर वाला, दीन स्वर वाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोरम एवं अमनाम स्वर वाला; तथा अनादेय वचन वाला होता है, और यदि उस जीव के कर्म अशुभरूप में न बँधे हुए हों, तो, उसके उपर्युक्त सब बातें प्रशस्त होती हैं,.... यावत् —वह आदेयवचन वाला होता है।'
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' यों कह कर श्री गौतमस्वाी तप-संयम में विचरण करने लगे।
- विवेचन -गर्भगत जीव सम्बन्धी विचार–प्रस्तुत १३ सूत्रों (सू. १० से २२ तक) में विविध पहलुओं से गर्भगत जीव से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर अंकित किए गए हैं।
द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय-इन्द्रिय के दो भेद हैं—द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। पौद्गलिक रचना-विशेष को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं—निर्वृत्ति और उपकरण। इन्द्रियों की आकृति को निर्वृत्ति कहते हैं, और उनके सहायक को उपकरण कहते हैं। भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग। लब्धि का अर्थ शक्ति है, जिसके द्वारा आत्मा शब्दादि का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है। उपयोग का अर्थ है ग्रहण करने का व्यापार। जीव जब गर्भ में आता है, तब उसमें शक्तिरूप भावेन्द्रियाँ यथायोग्य साथ ही होती हैं।
गर्भगत जीव के आहारादि-गर्भ में पहुंचने के प्रथम समय में माता के ऋतु-सम्बन्धी रज और पिता के वीर्य के सम्मिश्रण को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् माता द्वारा ग्रहण किये हुए रसविकारों का एक भाग ओज के साथ ग्रहण करता है। गर्भस्थ जीव के मल-मूत्रादि नहीं होते, क्योंकि वह जो भी आहार ग्रहण करता है उसे श्रोत्रेन्द्रियादि रूप में परिणमाता है। वह कवलाहार नहीं करता, सर्वात्म रूप से आहार ग्रहण करता है। रसहरणी नाड़ी (नाभि का नाल) द्वारा गर्भगत जीव माता के जीव का रस ग्रहण करता है। यह नाड़ी माता के जीव के साथ प्रतिबद्ध और सन्तान के जीव के साथ स्पृष्ट होती है। दूसरी पुत्रजीवरसहरणी द्वारा गर्भस्थ जीव आहार का चयउपचय करता है। इससे गर्भस्थ जीव परिपुष्टि प्राप्त करता है। यह नाड़ी सन्तान के जीव के साथ प्रतिबद्ध और माता के जीव के साथ स्पृष्ट होती है।