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पथम शतक : उद्देशक-७]
[१२९ उस्ससति, सव्वतो निस्ससति, अभिक्खणं आहारेति, अभिक्खणं परिणामेति, अभिक्खणं उस्ससति, अभिक्खणं, निस्ससति, आहच्च आहारेति, आहच्च परिणामेति, आहच्च उस्ससति आहच्च नीससति। मातु-जीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी मातुजीवपडिबद्धापुत्तजीवं फुडा तम्हा आहारेइ, तम्हा परिणामेति, अवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाति, तम्हा उवचिणाति; से तेणठेणं. जाव नो पभू मुहेणं कावलिकं आहारं आहारित्तए।
[१५-१ प्र.] भगवन्! क्या गर्भ में रहा हुआ जीव मुख से कवलाहार (ग्रासरूप में आहार) करने में समर्थ है ?
[१५-१ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है—ऐसा होना सम्भव नहीं है।
[१५-२ प्र.] भगवन्! यह आप किस कारण से कहते हैं ? _[१५-२ उ.] गौतम! गर्भगत जीव सब ओर से (सारे शरीर से) आहार करता है, सारे शरीर से परिणमाता है, सर्वात्मना (सब ओर से) उच्छ्वास लेता है, सर्वात्मना निःश्वास लेता है, बार-बार आहार करता है, बार-बार (उसे) परिणमाता है, बार-बार उच्छ्वास लेता है, बार-बार निःश्वास लेता है, कदाचित् आहार करता है, कदाचित् परिणमाता है, कदाचित् उच्छ्वास लेता है, कदाचित् निःश्वास लेता है, तथा पुत्र (-पुत्री) के जीव को रस पहुँचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो मातृजीवरसहरणी नाम की नाड़ी है वह माता के जीव के साथ सम्बद्ध है और पुत्र (-पुत्री) के जीव के साथ स्पृष्ट–जुड़ी हुई है। उस नाड़ी द्वारा वह (गर्भगत जीव) आहार लेता है और आहार को परिणमाता है तथा एक और नाड़ी है, जो पुत्र (-पुत्री) के जीव के साथ सम्बद्ध है और माता के जीव के साथ स्पृष्ट–जुड़ी हुई होती है, उससे (गर्भगत) पुत्र (या पुत्री) का जीव आहार का चय करता है और उपचय करता है। इस कारण से हे गौतम! गर्भगत जीव मुख द्वारा कवलरूप आहार को लेने में समर्थ नहीं है।
१६. कति णं भंते! मातिअंगा पण्णत्ता? गोयमा! तओ मातियंगा पण्णत्ता। तं जहा—मंसे सोणिते मत्थुलुंगे। [१६ प्र.] भगवन्! (जीव के शरीर में) माता के अंग कितने कहे गए हैं ?
[१६ उ.] गौतम! माता के तीन अंग कहे गए हैं; वे इस प्रकार हैं--(१) मांस, (२) शोणित (रक्त) और (३) मस्तक का भेजा (दिमाग)।
१७. कति णं भंते! पितियंगा पण्णत्ता? गोयमा! तओ पितियंगा पण्णत्ता।तं जहा अट्ठि अट्ठिमिंजा केस-मंसु-रोम-नहे। [१७ प्र.] भगवन्! पिता के कितने अंग कहे गए हैं ?
[१७ उ.] गौतम! पिता के तीन अंग कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) हड्डी, (२) मज्जा और (३) केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम तथा नख।
१८. अम्मापेतिए णं भंते! सरीरए केवइयं कालं संचिट्ठति ?
गोयमा! जावतियं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावन्ने भवति एवतियं कालं संचिट्ठति, अहे णं समए समए वोक्कसिज्जमाणे २ चरमकालसमयंसि वोच्छिन्ने भवइ।