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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १२. जीवे णं भंते! गब्भं वक्कममाणे तप्पढमताए किमाहारमाहारेति?
गोयमा! माउओयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसिर्ल्ड कलुसं किव्विसं तप्पढमताए आहारमाहारेति।
[१२ प्र.] भगवन्! गर्भ में उत्पन्न होते ही जीव सर्वप्रथम क्या आहार करता है ?
[१२ उ.] गौतम! परस्पर एक दूसरे में मिला हुआ माता का आर्तव (रज) और पिता का शुक्र (वीर्य), जो कि कलुष और किल्विष है, जीव गर्भ में उत्पन्न होते ही सर्वप्रथम उसका आहार करता है।
१३. जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे किमाहारमाहारेति ?
गोयमा! जं से माता नाणाविहाओ रसविगतीओ आहारमाहारेति तदेक्कदेसेणं ओयमाहारेति।
[१३ प्र.] भगवन्! गर्भ में गया (रहा) हुआ जीव क्या आहार करता है?
[१३ उ.] गौतम! उसकी माता जो नाना प्रकार की (दुग्धादि) रसविकृतियों का आहार करती है; उसके एक भाग के साथ गर्भगत जीव माता के आर्तव का आहार करता है।
१४. जीवस्स णं भंते! गभगतस्स समाणस्स अस्थि उच्चारे इ वा पासवणे इ वा खेलेइ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा?
णो इणठे समठे। से केणठेणं?
गोयमा! जीवे णं गब्भगए समाणे जमाहारेति तं चिणाइ तं सोतिंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अट्ठि-अट्ठिमिंज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए, से तेणढेणं०।।
[१४-१ प्र.] भगवन्! क्या गर्भ में रहे हुए जीव के मल होता है, मूत्र होता है, कफ होता है, नाक का मैल होता है, वमन होता है, पित्त होता है ?
[१४-१ उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है-गर्भगत जीव के ये सब (मलमूत्रादि) नहीं होते हैं।
[१४-२ प्र.] भगवन्! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं?
[१४-२ उ.] हे गौतम! गर्भ में जाने पर जीव जो आहार करता है, जिस आहार का चय करता है, उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा हड्डी, मज्जा, केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम और नखों के रूप में परिणत करता है। इसलिए हे गौतम! गर्भ में गए हुए जीव के मलमूत्रादि नहीं होते।
१५.जीवे णं भंते! गब्भगते समाणे पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ? गोयमा! णो इणढे समठे। सेकेणठेणं? गोयमा! जीवे णं गब्भगते समाणे सव्वतो आहारेति, सव्वतो परिणामेति, सव्वतो