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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३] [७७ उदीरणा : कुछ शंका-समाधान-(१) जीव काल आदि अन्य की सहायता से उदीरणा आदि करता है, फिर भी जीव को ही यहाँ कर्ता के रूप में क्यों बताया गया है? इसका समाधान यह है कि जैसे घड़ा बनाने में कुम्हार के अतिरिक्त गधा, दण्ड, चक्र, चीवर, काल आदि सहायक होते हुए भी कुम्हार को ही प्रधान एवं स्वतन्त्र कारण होने के नाते घड़े का कर्ता माना जाता है, वैसे ही कर्म की उदीरणा आदि का प्रधान एवं स्वतंत्र कर्ता जीव को ही समझना चाहिए। (२) उदीरणा के साथ गर्दा और संवरणा (संवर) को रखने का कारण यह है कि ये दोनों उदीरणा के साधन हैं। (३) कर्म की उदीरणा में काल, स्वभाव, नियति, गुरु आदि भी कारण हैं, फिर भी जीव के उत्थान आदि पुरुषार्थ की प्रधानता होने से उदीरणा आदि में आत्मा के पुरुषार्थ को कारण बताया गया है। __गर्दा आदि का स्वरूप-अतीतकाल में जो पापकर्म किया, उनके कारणों को ग्रहण (कर्मबन्ध से कारणों का विचार) करके आत्मनिन्दा करना गर्दा है। इससे पापकर्म के प्रति विरक्ति-भाव जाग्रत होता है। गर्दा प्रायश्चित्त की पूर्वभूमिका है, और उदीरणा में सहायक है। वर्तमान में किये जाने वाले पापकर्म के स्वरूप को जानकर या उसके कारण को समझकर उस कर्म को रोकना या उसका त्यागप्रत्याख्यान कर देना संवर है। उदीर्ण (उदय में आए हुए) कर्म का क्षय होता है और जो उदय में नहीं आए हैं, उनके विपाक और प्रदेश का अनुभव न होना-कर्म की ऐसी अवस्था को उपशम कहते हैं। शास्त्रानुसार उपशम अनुदीर्ण कर्मों का विशेषतः मोहनीय कर्म का ही होता है, अन्य कर्मों का नहीं। वेदना और गर्हा-वेदन का अर्थ है- उदय में आए हुए कर्म-फल को भोगना। दूसरे की वेदना दूसरे को नहीं होती, न ही दूसरा दूसरे की वेदना को भोग सकता है। पुत्र की वेदना से माता दुःखी होती है, परन्तु पुत्र को पुत्र की वेदना होती है, माता को अपनी वेदना-मोहममत्व सम्बन्ध के कारण पीड़ा होती है। और यह भी सत्य है, अपनी वेदना को स्वयं व्यक्ति, समभाव से या गर्हा से भोगकर मिटा सकता है, दूसरा नहीं। वेदना और गर्दा दोनों पदों को साथ रखने का कारण यह है कि सकाम वेदना और सकाम निर्जरा बिना गर्दा के नहीं होती। अतः सकाम वेदना और सकाम निर्जरा का कारण गर्दा है, वैसे संवर भी है। कर्मसम्बन्धी चतुर्भंगी-मूल में जो चार भंग कहे हैं, उनमें से तीसरे भंग में उदीरणा, दूसरे भंग में उपशम, पहले भंग में वेदन और चौथे भंग में निर्जरा होती है। शेष सब बातें सब में समान हैं। निष्कर्ष-यह है कि उदय में न आए हुए, किन्तु उदीरणा के योग्य कर्मों की उदीरणा होती है, अनुदीर्ण कर्मों का उपशम होता है, उदीर्ण कर्म का वेदन होता है और उदयानन्तर पश्चात्कृत (उदय के बाद हटे हुए) कर्म की निर्जरा होती है। १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ५८-५९ (ख) “अणुमेत्तो वि, ण कस्सइ बंधो, परवत्थुपच्चयो भणिओ।" (ग) “मोहस्सेवोपसमो खओवसमो चउण्ह घाईणं। उदयक्खयपरिणामा अठण्ह वि होंति कम्माणं ॥" (घ) "तइएण उदीरेंति, उवसामेंति य पुणो वि बीएणं। वेइंति निज्जरंति य पढमचउत्थेहिं सव्वेऽवि॥"
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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