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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चौबीस दण्डकों तथा श्रमणों के कांक्षामोहनीयवेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
१४.[१] नेरइया णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेएंति ? जहा ओहिया जीवा तहा नेरइया जाव थणितकुमारा। [१४-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ?
[१४-१ उ.] हाँ, गौतम! वेदन करते हैं। सामान्य (औधिक) जीवों के सम्बन्ध में जैसे आलापक कहे थे, वैसे ही नैरयिकों के सम्बन्ध में यावत् स्तनितकुमारों (दसवें भवनपति देवों) तक समझ लेने चाहिए।
[२] पुढविक्काइया णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम वेदेति ? हंता, वेदेति। [१४-२ प्र.] भगवन्? क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [१४-२ उ.] हाँ, गौतम! वे वेदन करते हैं। [३] कहं णं भंते! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ?
गोयमा! तेसिणं जीवाणं णो एवं तक्का इ वा सण्णा इ वा पण्णा इवा मणे इ वा वई ति वा 'अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेमो' वेदेति पुण ते।
[१४-३ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव किस प्रकार कांक्षा मोहनीयकर्म का वेदन करते हैं ?
[१४-३ उ.] गौतम! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन नहीं होता कि 'हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं'; किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं।
[४] से णूणं भंते! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेदियं।' सेसं तं चेव जाव पुरिसक्कार-परक्कमेणं ति वा। [१४-४ प्र.] भगवन्! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है ?
[१४-४ उ.] हाँ, गौतम! यह सब पहले के समान जानना चाहिए-अर्थात् - जिनेन्द्रों द्वारा जो प्ररूपित है, वही सत्य और निःशंक (असंदिग्ध) है, यावत्-पुरुषकार-पराक्रम से निर्जरा होती है।
[५] एवं जाव चउरिंदिया। [१५-४] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियजीवों तक जानना चाहिए। [६] पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा ओहिया जीवा।
[१४-६] जैसे सामान्य जीवों के विषय में कहा है, वैसे ही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों से लेकर यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए।
१५.[१] अस्थि णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखोमोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? हंता, अत्थि।