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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की परम्परा - प्रस्तुत दो सूत्रों में कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध और उसके कारणों की परम्परा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं । ७४] बन्ध के कारण पूछने का आशय यदि बिना निमित्त के ही कर्मबन्ध होने लगे तो सिद्धजीवों को भी कर्मबन्ध होने लगेगा, परन्तु होता नहीं है। इसलिए कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारण के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है। कर्मबन्ध के कारण-यद्यपि कर्मबन्ध में ५ मुख्य कारण बताए गए हैं, तथापि यहाँ प्रमाद और योग दो कारण बताने का आशय यह है कि मिथ्यात्व, अविरति और कषाय का अन्तर्भाव प्रमाद में हो जाता है । यद्यपि सिद्धान्तानुसार छठे से आगे के गुणस्थानों में प्रमाद नहीं होता, फिर भी जहाँ (दसवें गुणस्थान) तक कषाय है, वहाँ तक सूक्ष्म प्रमाद माना जाता है, स्थूल प्रमाद नहीं। इसलिए वहाँ तक प्रायः मोहनीयकर्म का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थान में कषाय अत्यल्प (सूक्ष्म) होने से मोहकर्म का बन्ध नहीं होता है । यों प्रमाद के शास्त्रोक्त आठ भेदों में इन तीनों के अतिरिक्त और भी कई विकार प्रमाद के अन्तर्गत हैं । शरीर का कर्ता कौन- प्रस्तुत में शरीर का कर्ता जीव को बताया गया है, किन्तु जीव का अर्थ यहाँ नामकर्मयुक्त जीव समझना चाहिए। इससे सिद्ध, ईश्वर या नियति आदि के कर्तृत्व का निराकरण हो जाता है । उत्थान आदि का स्वरूप- ऊर्ध्व होना, खड़ा होना या उठना उत्थान है। जीव की चेष्टाविशेष को कर्म कहते हैं। शारीरिक प्राण बल कहलाता है । जीव के उत्साह को वीर्य कहते हैं। पुरुष की स्वाभिमानपूर्वक इष्टफलसाधक क्रिया पुरुषकार है और शत्रु को पराजित करना पराक्रम है। I शरीर से वीर्य की उत्पत्ति : एक समाधान - वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से वीर्य उत्पन्न होता है और सिद्ध भगवान् इस कर्म का क्षय कर चुके हैं। किन्तु प्रस्तुत में बताया गया है कि वीर्य की उत्पत्ति शरीर से होती है, ऐसी स्थिति में सिद्ध या अलेश्यी भगवान् वीर्य रहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि सिद्धों के शरीर नहीं होता । इस शंका का समाधान यह है कि वीर्य दो प्रकार के होते हैं-सकरणवीर्य और अकरणवीर्य । सिद्धों में या अलेश्यी भगवान् में अकरणवीर्य है, जो आत्मा का परिणामविशेष है, उसका शरीरोत्पन्न वीर्य (सकरणवीर्य) में समावेश नहीं है। अतः यहाँ सकरणवीर्य से तात्पर्य है । कांक्षामोहनीय की उदीरणा, गर्हा आदि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर १०. [१] से णूणं भंते! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, संवरेइ ? १. हंता, गोयमा ! अप्पणा चेव तं चेव उच्चारेयव्वं ३ | (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ५६-५७ (ख) पमाओ य मुणिंदेहिं भणिओ अट्टभेयओ । अण्णाणं संसओ चेव मिच्छानाणं तहेव य ॥ रागदोसे महब्भंसो, धम्मंमि य अणायरो । जगणं दुप्पणिहाणं अट्ठहा वज्जियव्वओ ॥ (ग) 'मिथ्यादर्शनाऽविरति प्रमाद - कषाय-योगाः बन्धहेतवः ' -तत्त्वार्थ. अ. ८ सूत्र १ अप्पणा चेव - भगवती अ. वृत्ति पत्रांक ५७ में उद्धृत ।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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