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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३] [६७ [५ प्र.] भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म को किस प्रकार वेदते हैं ? ___ [५ उ.] गौतम! उन-उन (अमुक-अमुक) कारणों से शंकायुक्त, कांक्षायुक्त, विचिकित्सायुक्त, भेदसमापन्न एवं कलुषसमापन्न होकर; इस प्रकार जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। आराधक-स्वरूप ६.[१] से नूणं भंते! तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं? हंता, गोयमा! तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं। [६-१ प्र.] भगवन्! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों ने निरूपित किया है? [६-१ उ.] हाँ, गौतम! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा निरूपित है। [२] से नूणं भंते! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे एवं चिह्रमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति? हंता, गोयमा! एवं मणं धारेमाणे जाव भवति। [६-२ प्र.] भगवन् ! (वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित है) इस प्रकार मन में धारण (निश्चय) करता हुआ, उसी तरह आचरण करता हुआ, यों कहता हुआ, इसी तरह संवर करता हुआ जीव क्या आज्ञा का आराधक होता है ? ___ [६-२ उ.] हाँ, गौतम! इसी प्रकार मन में निश्चय करता हुआ यावत् आज्ञा का आराधक होता है। विवेचन-चतुर्विंशतिदण्डकों में कांक्षामोहनीय का कृत, चित आदि ६ द्वारों से त्रैकालिक विचार-प्रस्तुत तीन सूत्रों में कांक्षामोहनीय कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से विचार किया गया है। प्रश्नोत्तर का क्रम इस प्रकार है- (१) क्या कांक्षामोहनीय कर्म जीवों का कृत है ? (२) यदि कृत है तो देश से देशकृत, देश से सर्वकृत, सर्व से देशकृत है या सर्व से सर्वकृत है ? (३) यदि सर्व से सर्वकृत है तो नारकी से लेकर वैमानिक तथा चौबीस दण्डकों के जीवों द्वारा कृत है? कृत है तो सर्व से सर्वकृत है? इत्यादि, (४) क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन किया है ? (५) यदि किया है तो वह चौबीस ही दण्डकों में किया है, तथा वह सर्व से सर्वकृत है ? इसी प्रकार करते हैं, करेंगे। (६) इस प्रकार कृत के त्रैकालिक आलापक की तरह चित, उपचित, उदीर्ण, वेदित और निर्जीर्ण पद के कांक्षामोहनीयसम्बन्धी त्रैकालिक आलापक कहने चाहिए। कांक्षामोहनीय-जो कर्म जीव को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय। यहाँ चारित्रमोहनीय कर्म के विषय में प्रश्न नहीं है। इसीलिए मोहनीय शब्द के साथ 'कांक्षा' शब्द लगाया गया है। कांक्षा-मोहनीय का अर्थ है-दर्शनमोहनीय।कांक्षा का मूल अर्थ है-अन्यदर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा करना।संशयमोहनीय, विचिकित्सामोहनीय, परपाखण्डप्रशंसामोहनीय आदि कांक्षामोहनीय के अन्तर्गत समझ लेने चाहिए। कांक्षामोहनीय का ग्रहण कैसे, किस रूप में ?- कार्य चार प्रकार से होता है, उदाहरणार्थ
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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