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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एक मनुष्य अपने शरीर के एक देश - हाथ से वस्त्र का एक भाग ग्रहण करता है, यह एकदेश से एकदेश का ग्रहण करना है । इसी प्रकार हाथ से सारे वस्त्र का ग्रहण किया तो यह एकदेश से सर्व का ग्रहण करना है; यदि समस्त शरीर से वस्त्र के एक भाग को ग्रहण किया तो सर्व से एकदेश का ग्रहण हुआ; सारे शरीर से सारे वस्त्र को ग्रहण किया तो सर्व से सर्व का ग्रहण करना हुआ। प्रस्तुत प्रकरण में देश का अर्थ है - आत्मा का एक देश और एक समय में ग्रहण किये जाने वाले कर्म का एक देश । अगर आत्मा के एकदेश से कर्म का एकदेश किया तो यह एक देश से एक देश की क्रिया की । अगर आत्मा के एकदेश से सर्व कर्म किया, तो यह देश से सर्व की क्रिया हुई । सम्पूर्ण आत्मा से कर्म का एकदेश किया, तो सर्व से देश की क्रिया हुई और सम्पूर्ण आत्मा से समग्र कर्म किया तो सर्व से सर्व की क्रिया हुई । गौतम स्वामी के इस चतुर्भंगीय प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि गौतम ! कांक्षामोहनीय कर्म सर्व से सर्वकृत है, अर्थात् – समस्त आत्मप्रदेशों से समस्त कांक्षामोहनीय कर्म किया हुआ है। पूर्वोक्त चभंगी में से यहाँ चौथा भंग ही ग्रहण किया गया है।
कर्मनिष्पादन की क्रिया त्रिकाल सम्बन्धित - कर्म क्रिया से निष्पन्न होता है और क्रिया तीनों कालों से सम्बन्धित होती है, इसलिए त्रिकाल सम्बन्धी क्रिया से कर्म लगते हैं। इसी कारण यहाँ कांक्षामोहनीय कर्म के सम्बन्ध में त्रिकालसम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। आयुकर्म के सिवाय जब तक किसी कर्म के बन्ध का कारण नष्ट नहीं हो जाता, तब तक उस कर्म का बन्ध होता रहता है । कांक्षामोहनीयकर्म के विषय में भी यही नियम समझना चाहिए।
'चित्त' आदि का स्वरूप : प्रस्तुत सन्दर्भ में - पूर्वोपार्जित कर्मों में प्रदेश और अनुभाग एक बार वृद्धि करना अर्थात् - संक्लेशमय परिणामों से उसे एक बार बढ़ाना चित (चय किया) कहलाता है। जैसे—किसी आदमी ने भोज किया उसमें उसे सामान्य क्रिया लगी, किन्तु बाद में वह रागभाव से प्रेरित होकर उस भोजन की प्रशंसा करने लगा, यह चय करना हुआ। बार-बार तत्सम्बन्धी चय करना उपचय (उपचित) कहलाता है। किसी-किसी आचार्य के मतानुसार कर्म - पुद्गलों का ग्रहण करना 'चय' कहलाता है और अबाधाकाल समाप्त होने के पश्चात् गृहीत कर्म-पुद्गलों को वेदन करने के लिए निषेचन (कर्मदलिकों का वर्गीकरण) करना, उदयावलिका में स्थापित करना 'उपचय' कहा जाता है।
'उदीरणा' 'वेदना' और 'निर्जरा' का स्वरूप पहले बताया चुका है।
उदीरणा आदि में सिर्फ तीन प्रकार का काल - उदीरणा आदि चिरकाल तक नहीं रहते, अतएव उनमें सामान्यकाल नहीं बताया गया है।
उदयप्राप्त कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन - प्रस्तुत कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन के प्रश्न को पुनः दोहराने का कारण वेदन के हेतु विशेष (विशिष्ट कारणों) को बतलाना है।
शंका आदि पदों की व्याख्या - वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने अपने अनन्त - ज्ञान-दर्शन में जिन तत्त्वों को जान कर निरूपण किया, उन तत्त्वों पर या उनमें से किसी एक पर शंका करना - 'कौन जाने
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'पुव्वभणियं पि पच्छा जं भण्णइ तत्थ कारणं अत्थि । पडिसेहो य अणुन्ना हेउविसेसोवलंभोत्ति ॥'