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तइओ उद्देसो : कंखपओसे
तृतीय उद्देशक : कांक्षा-प्रदोष चौबीस दण्डकों में कांक्षामोहनीयकर्मसम्बन्धी षड्द्वार-विचार
१.[१] जीवाणं भंते! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हंता, कडे। [१-१ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का कांक्षामोहनीय कर्म कृतक्रियानिष्पादित (किया हुआ) है ? [१-१ उ.] हाँ गौतम! वह कृत है।
[२] से भंते! किं देसेणं देसे कडे १?, देसेणं सव्वे कडे २ ?, सव्वेणं देसे कडे ३?, सव्वेणं सव्वे कडे ४?
गोयमा! नो देसेणं देसे कडे १, नो देसेणं सव्वे कडे २, नो सव्वेणं देसे कडे ३, सव्वेणं सव्वे कडे ४।
[१-२ प्र.] भगवन्! क्या वह देश से देशकृत है, देश से सर्वकृत है, सर्व से देशकृत है अथवा सर्व से सर्वकृत है ? _ [१-२ उ.] गौतम! वह देश से देशकृत नहीं है, देश से सर्वकृत नहीं है, सर्व से देशकृत नहीं है, सर्व से सर्वकृत है।
२.[१] नेरइयाणं भंते! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हंता, कडे जाव सव्वेणं कडे ४। [२] एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियव्वो। [२-१ प्र.] भगवन्! क्या नैरयिकों का कांक्षामोहनीयकर्म कृत है ?
[२-१ उ.] हाँ, गौतम! कृत, यावत् 'सर्व से सर्वकृत है' इस प्रकार से यावत् चौबीस ही दण्डकों में वैमानिकपर्यन्त आलापक कहना चाहिए।
३[१] जीवा णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं करिसु? हंता, करिसु। [३-१ प्र.] भगवन्! क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन किया है ? [३-१ उ.] हाँ गौतम! किया है। [२] तं भंते! किं देसेणं देसं करिसु? एतेणं अभिलावेणं दंडओ १ जाव वेमाणियाणं।