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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आयुष्य असंज्ञी द्वारा ही उपर्जित किया हुआ है। यद्यपि असंज्ञी की मनोलब्धि विकसित न होने से उसे अच्छे-बुरे का भान नहीं होता, मगर उसके आन्तरिक अध्यवसाय को सर्वज्ञ तीर्थंकर तो हस्तामलकवत् जानते ही हैं कि वह नरकायु का उपार्जन कर रहा है या देवायु का ? जैसे भिक्षु से सम्बन्धित पात्र को भिक्षुपात्र कहते हैं, वैसे ही असंज्ञी से सम्बन्धित आयु को असंज्ञी-आयुष्य कहते हैं।
तिर्यंच और मनुष्य के आयुष्य को पल्योपम के असंख्यातवें भाग युगलियों की अपेक्षा से समझना चाहिए।
॥प्रथम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ५१