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________________ प्रथम शतक : उद्देशक - २] [ ६३ हंता, गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पि पकरेइ, देवाउयं पिपकरेइ । नेरइयाउयं पकरेमाणे जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेति । तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभाग पकरेइ । मणुस्साउए वि एवं चेव । देवाउयं पकरेमाणे जहा नेरइया । [२१ प्र.] भगवन्! असंज्ञी जीव क्या नरक का आयुष्य उपार्जन करता है, तिर्यञ्चयोनिक का आयुष्य उपार्जन करता है, मनुष्य का आयुष्य भी उपार्जन करता है या देव का आयुष्य उपार्जन करता है ? [२१ उ.] हाँ गौतम! वह नरक का आयुष्य भी उपार्जन करता है, तिर्यञ्च का आयुष्य भी उपार्जन करता है, मनुष्य का आयुष्य भी उपार्जन करता है और देव का आयुष्य भी उपार्जन करता है। नारक का आयुष्य उपार्जन करता हुआ असंज्ञीजीव जघन्य दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है । तिर्यञ्चयोनि का आयुष्य उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त का और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है। मनुष्य का आयुष्य भी इतना ही उपार्जन करता है और देव आयुष्य का उपार्जन भी नरक के आयुष्य के समान करता है । २२. एयस्स णं भंते! नेरइयअसण्णिआउयस्स तिरिक्खजोणियअसण्णिआउयस्स मणुस्सअसण्णिआउयस्स देवअसण्णिआउयस्स य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिए वा ? गोयमा! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, मणुस्सअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, तिरियजोणियअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइयअसण्णिआउये असंखेज्जगुणे । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ ॥ बितिओ उद्देसओ समत्तो ॥ [२२ प्र.] हे भगवन्! नारक - असंज्ञी - आयुष्य, तिर्यञ्च - असंज्ञी - आयुष्य, मनुष्य - असंज्ञी - आयुष्य और देव-असंज्ञी - आयुष्य; इनमें कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [२२ उं.] गौतम ! देव-असंज्ञी - आयुष्य; सबसे कम है, उसकी अपेक्षा मनुष्य- असंज्ञी - आयुष्य असंख्यात गुणा है, उससे तिर्यञ्च असंज्ञी - आयुष्य असंख्यात - गुणा है और उससे भी नारक - असंज्ञीआयुष्य असंख्यात गुणा है । 'हे भगवन्!' (जैसा आप फरमाते हैं), वह इसी प्रकार है, वह इसी प्रकार है।' ऐसा कहकर गौतम स्वामी संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे । विवेचन - असंज्ञी - आयुष्य : प्रकार, उपार्जन एवं अल्पबहुत्व - प्रस्तुत तीन सूत्रों (२०२१-२२) में असंज्ञी जीव के आयुष्य के प्रकार, उपार्जन और अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। असंज्ञी - आयुष्य - वर्तमानभव में जो जीव विशिष्ट संज्ञा से रहित है, वह परलोक के योग्य जो आयुष्य बाँधता है, उसे असंज्ञी - आयुष्य कहते हैं । असंज्ञी द्वारा आयुष्य का उपार्जन या वेदन ? - श्री गौतम स्वामी ने असंज्ञी जीवों के आयुष्य सम्बन्ध में दूसरा प्रश्न उठाया है, जिसका आशय यह है कि असंज्ञी जीव मन के अभाव में आयुष्य का उपार्जन कैसे कर सकता है ? अतः नरक, तिर्यञ्च आदि का आयुष्य असंज्ञी द्वारा उपार्जन किया जाता है या सिर्फ भोगा (वेदन किया) जाता है ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं – असंज्ञी का
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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