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________________ ६२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र असंज्ञी जीव-जिसके मनोलब्धि नहीं है, ऐसा असंज्ञी जीव अकाम-निर्जरा करता है, इस कारण वह देवलोक में जा सकता है। तापस-वृक्ष से गिरे हुए पत्तों आदि को खाकर उदरनिर्वाह करने वाला बाल-तपस्वी। कान्दर्पिक-जो साधु हंसोड़-हास्यशील हो। ऐसा साधु चारित्रवेश में रहते हुए भी हास्य-शील होने के कारण अनेक प्रकार की विदूषक-की सी चेष्टाएँ करता है। अथवा कन्दर्प अर्थात् कामसम्बन्धी वार्तालाप करने वाला साधु भी कान्दर्पिक कहलाता है। चरकपरिव्राजक-गेरुए या भगवे रंग के वस्त्र पहनकर घाटी (सामूहिक भिक्षा) द्वारा अजीविका करने वाले त्रिदण्डी, कुच्छोटक आदि अथवा कपिलऋषि के शिष्य। किल्विषिक-जो ज्ञान, केवली, धर्माचार्य और सब साधुओं का अवर्णवाद करता है और पापमय भावना वाला है, वह किल्विषिक साधु है। किल्विषिक साधु व्यवहार से चारित्रवान भी होता है। तिर्यञ्च-देशविरति श्रावकव्रत का पालन करने वाले घोड़े, गाय आदि। जैसे-नन्दन-मणिहार का जीव मेंढक के रूप में श्रावकव्रती था। आजीविक-(१) एक खास तरह के पाखण्डी, (२) नग्न रहने वाले गोशालक के शिष्य, (३) लब्धिप्रयोग करके अविवेकी लोगों द्वारा ख्याति प्राप्त करने या महिमा-पूजा के लिए तप और चारित्र का अनुष्ठान करने वाले और (४) अविवेकी लोगों में चमत्कार दिखलाकर अपनी आजीविका उपार्जन करने वाले। आभियोगिक-विद्या और मंत्र आदि का या चूर्ण आदि के योग का प्रयोग करना और दूसरों को अपने वश में करना अभियोग कहलाता है। जो साधु व्यवहार से तो संयम का पालन करता है, किन्तु मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, चूर्ण आदि के प्रयोग द्वारा दूसरे को आकर्षित करता है, वशीभूत करता है, वह. आभियोगिक कहलाता है। दर्शनभ्रष्टसलिंगी-साधु के वेष में होते हुए भी दर्शनभ्रष्ट-निह्नव दर्शनभ्रष्टस्ववेषधारी है। ऐसा साधक आगम के अनुसार क्रिया करता हुआ भी निह्नव होता है, जिन-दर्शन से विरुद्ध प्ररूपणा करता है, जैसे जामालि। . असंज्ञी आयुष्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर २०. कतिविहे णं भंते; असण्णियाउए पण्णत्ते ? गोयमा! चउव्विहे असण्णिआउए पण्णत्ते। तं जहा-नेरइय-असण्णिआउए १, तिरिक्खजोणिय-असण्णिआउए २, मणुस्सअसण्णिआउए ३, देवअसण्णिआउए ४। [२० प्र.] भगवन्! असंज्ञी का आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? [२० उ.] गौतम! असंज्ञी का आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार हैनैरयिक-असंज्ञी आयुष्य, तिर्यञ्च-असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य-असंज्ञी आयुष्य और देव-असंज्ञी आयुष्य। २१. असण्णी णं भंते! जीवे किं नेरइयाउयं पकरेति, तिरिक्ख-जोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, देवाउयं पकरेइ। १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ४९-५० (ख) जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ। सो तविहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो॥ (ग) णाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स सव्व साहूणं। (घ) कोऊय-भूइकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। माई अवन्नवाई किदिवसियं भावणं कुणइ। इड्ढिरससायगरुओ अहिओगं भावणं कुणइ ।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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