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________________ [ ६१ प्रथम शतक : उद्देशक - २] उत्पन्न हों तो, किसका कहाँ उपपात (उत्पाद) होता है ? [१९. उ.] गौतम! असंयतभव्यद्रव्यदेवों का उत्पाद जघन्यतः भवनवासियों में और उत्कृष्टतः ऊपर के ग्रैवेयकों में कहा गया है। अखण्डित ( अविराधित) संयम वालों का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में, खण्डित संयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, अखण्डित संयमासंयम का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, खण्डित संयमासंयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, असंज्ञीजीवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरदेवों में और शेष सबका उत्पाद जघन्य भवनवासियों में होता है; उत्कृष्ट उत्पाद आगे बता रहे हैं - तापसों का ज्योतिष्कों में, कान्दर्पिकों का सौधर्मकल्प में, चरकपरिव्राजकों का ब्रह्मलोक कल्प में, किल्विषिकों का लान्तक कल्प में, तिर्यञ्चों का सहस्रारकल्प में, आजीविकों तथा आभियोगिकों का अच्युतकल्प में और श्रद्धा भ्रष्ट वेषधारियों का ऊपर के ग्रैवेयकों तक में उत्पाद होता है । विवेचन-असंयतभव्यद्रव्यदेव आदि के देवलोक उत्पाद के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर - प्रस्तुत सूत्र में विविध प्रकार के १४ आराधक - विराधक साधकों तथा अन्य जीवों 'देवलोक - उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है असंयत भव्यद्रव्यदेव- (१) जो असंयत - चारित्रपरिणामशून्य हो, किन्तु भविष्य में देव होने योग्य हो, (२) असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी हो सकता है, किन्तु यह अर्थ यहां संगत नहीं, क्योंकि असंयत भव्यद्रव्य देव का उत्कृष्ट उत्पाद ग्रैवेयक तक कहा है, जबकि अविरत सम्यग्दृष्टि तो दूर रहे, देशविरत श्रावक (संयमासंयमी) भी अच्युत देवलोक से आगे नहीं जाते। (३) इसी प्रकार असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ असंयत निह्नव भी ठीक नहीं, क्योंकि इनके उत्पाद के विषय में इसी सूत्र में पृथक् निरूपण है । (४) अतः असंयत भव्यद्रव्यदेव का स्पष्ट अर्थ है - जो साधु-समाचारी और साध्वाचार का पालन करता हो, किन्तु जिसमें आन्तरिक (भाव से) साधुता न हो केवल द्रव्यलिंगधारी हो, ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि । यद्यपि ऐसे असंयत भव्यद्रव्यदेव में महामिथ्यादर्शनरूप मोह की प्रबलता होती है, तथा जब वह चक्रवर्ती आदि अनेक राजा-महाराजाओं द्वारा साधुओं का वन्दन- नमन, पूजा, सत्कार-सम्मान आदि करते देखता है तो सोचता है कि साधु बन जाऊँ तो मेरी भी इसी तरह वन्दना, पूजा-प्रतिष्ठा आदि होने लगेगी; फलत इस प्रकार की प्रतिष्ठामोह की भावना से वह श्रमणव्रत पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं। उसकी श्रद्धा प्रव्रज्या तथा क्रियाकलाप पूर्ण है, वह आचरण भी पूर्णतया करता है, परन्तु चारित्र के परिणाम से शून्य होने से असंयत है । अविराधित संयमी - दीक्षाकाल से लेकर अन्त तक जिसका चारित्र कभी भंग न हुआ हो, वह अखण्डित संयमी है। इसे आराधक संयमी भी कहते हैं । विराधित संयमी - इसका स्वरूप अविराधित संयमी से विपरीत है । जिसने महाव्रतों का ग्रहण करके उनका भलीभांति पालन नहीं किया है, संयम की विराधना की है, वह विराधित संमयी, खण्डित संयमी या विराधक संयमी है। अविराधित संयमासंयमी - जो देशविरति ग्रहण करके अन्त तक अखण्डित रूप से उसका पालन करता है उसे आराधक संयमासंयमी कहते हैं । विराधित संयमासंयमी - जिसने देशविरति ग्रहण करके उसका भली-भाँति पालन नहीं किया है, उसे विराधित संयमासंयमी कहते हैं ।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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