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## Twenty-Second Stana-Samvaya
**[65] **There are many Bhavyasiddhi Jivas who will attain Siddhi, become Buddhas, be liberated from karmas, attain Nirvana, and end all suffering after experiencing twenty-one Bhava-grahanas.
**[Achyut Kalpa]** In the Achyut Kalpa, the lowest state of Devas is described as twenty-one Sagaropama. The Devas who are born in the Vimanas called Srivatsa, Sridamakanḍa, Malla, Kṛṣṭa, Chaponnata, and Aranavataska are said to be in the state of twenty-one Sagaropama. These Devas take their breath (Anpraṇ or Ucchvāsa-Niḥśvāsa) after twenty-one Ardhamasas (ten and a half months). Their desire for food arises after twenty-one thousand years.
**[Ekavimsati-Stana-Samvaya Samāpta]**
**[Twenty-Second Stana-Samvaya]**
**[150]** There are twenty-two Pariṣahas, namely: 1. Digincchā Pariṣaha, 2. Pipāsā Pariṣaha, 3. Sīta Pariṣaha, 4. Uṣṇa Pariṣaha, 5. Daṃśa-Maśaka Pariṣaha, 6. Acela Pariṣaha, 7. Arati Pariṣaha, 8. Itthī Pariṣaha, 9. Cariyā Pariṣaha, 10. Niṣidhyā Pariṣaha, 11. Sijjā Pariṣaha, 12. Akkosa Pariṣaha, 13. Vaha Pariṣaha, 14. Jāyaṇā Pariṣaha, 15. Alābha Pariṣaha, 16. Roga Pariṣaha, 17. Taṇaphāsa Pariṣaha, 18. Jalla Pariṣaha, 19. Saccāra-Puraskāra Pariṣaha, 20. Prajñā Pariṣaha, 21. Aṇṇāṇa Pariṣaha, and 22. Adarśana Pariṣaha.
**[Explanation]** Pariṣaha refers to the hardships or difficulties that are willingly endured with the intention of not falling from the path of liberation and exhausting the accumulated karmas. These are twenty-two in number, as mentioned above.
**[151]** In the twelfth Anga, called Dṛṣṭivāyassa, there are twenty-two Sutras which are Chinn-Chhedanayika according to the Svayam-Samaya-Sutra-Paripaṭī. These twenty-two Sutras are Acchinn-Chhedanayika according to the Ajīvika-Sutra-Paripaṭī. These twenty-two Sutras are Nayatrikasambandhi according to the Trairāśika-Sutra-Paripaṭī. These twenty-two Sutras are Chatuṣkanayika, meaning they are explained from the perspective of four Nayas.
**[Explanation]** The Nay that accepts the Chinn Sutra with Chheda or Bheda, i.e., with distinction from other Ślokas, etc., is called...
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द्वाविंशतिस्थानक-समवाय]
[६५ संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे एक्कबीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
अच्युत कल्प में देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। वहाँ जो देव श्रीवत्स, श्रीदामकाण्ड, मल्ल, कृष्ट, चापोन्नत और आरणावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। वे देव इक्कीस अर्धमासों (साढे दश मासों) के बाद आनप्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के इक्कीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इक्कीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे, और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
॥ एकविंशतिस्थानक समवाय समाप्त ॥
द्वाविंशतिस्थानक-समवाय १५० --वावीसं परीसहा पण्णत्ता, तं जहा-दिगिंछापरीसहे १, पिवासापरीसहे २, सीतपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४, दंसमसगपरीसहे ५, अचेलपरीसहे ६, अरइपरीसहे ७, इत्थीपरीसहे ८, चरिआपरीसहे ९, निसीहिआपरीसहे १०, सिज्जापरीसहे ११, अक्कोसपरीसहे १२, वहपरीसहे १३ जायणापरीसहे १४ अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणफासपरीसहे १७, जल्लपरीसहे १८, सक्कारपुरक्कारपरीसहे १९, पण्णापरीसहे २०, अण्णाणपरीसहे २१, अदंसणपरीसहे २२।
बाईस परीषह कहे गये हैं। जैसे---१. दिगिंछा (बुभुक्षा) परीषह, २. पिपासापरीषह,३. शीतपरीषह, ४. उष्णपरीषह, ५ . दंशमशकपरीषह, ३. अचेलपरीषह, ७. अरतिपरीषह, ८. स्त्रीपरीषह, ८. चर्यापरीषह, १०. निषद्यापरीषह, ११ शय्यापरीषह,१२. आक्रोशपरीषह, १३. वधपरीषह, १४. याचनापरीषह, १५. अलाभपरीषह, १६. रोगपरीषह, १७. तृणस्पर्शपरीषह, १८. जल्लपरीषह, १९. सत्कार-पुरस्कारपरीषह, २०. प्रज्ञापरीषह, २१. अज्ञानपरीषह और २२. अदर्शनपरीषह।
विवेचन – मोक्षमार्ग से पतन न हो और पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा हो, इस भावना से भूख, प्यास, शीत, उष्ण, डांस-मच्छर आदि की जो बाधा या कष्ट स्वयं सम्भावपूर्वक सहन किये जाते हैं, उन्हें परीषह कहा जाता है। वे बाईस हैं, जिनके नाम ऊपर गिनाये गये हैं।
१५१-दिट्ठिवायस्स णं वावीसं सुत्ताई छिन्नछेयणइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताई अच्छिन्नछेयणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताइं तिकणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताइं चउक्कणइयाइं समयसुत्तपरिवाडीए।
दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में बाईस सूत्र स्वसमयसूत्रपरिपाटी से छिन्न-छेदनयिक हैं। बाईस सूत्र आजीविकसूत्रपरिपाटी से अच्छिन्न-छेदनयिक हैं। बाईस सूत्र त्रैराशिकसूत्रपरिपाटी से नयत्रिकसम्बन्धी हैं। बाईस सूत्र चतुष्कनयिक हैं जो चार नयों की अपेक्षा से कहे गये हैं।
विवेचन-जो नय छिन्न सूत्र को छेद या भेद से स्वीकार करता है, अर्थात् दूसरे श्लोकादि की