SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 755
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८८ स्थानाङ्गसूत्रम् है। बीच में दश हजार योजन तक पानी समतल है, उसमें ढलान नहीं है, उसे 'गोतीर्थ-रहित' कहा गया है। जल की शिखर या चोटी को उदकमाला कहते हैं। यह समुद्र के मध्यभाग में होती है। लवणसमुद्र की उदकमाला दश हजार योजन चौड़ी और सोलह हजार योजन ऊँची होती है (३३)। पाताल-सूत्र ३४- सव्वेवि णं महापाताला दसदसाइं जोयणसहस्साइं उव्वेहेणं पण्णत्ता, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसियाए सेढीए दसदसाइं जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ता, उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ता। तेसि णं महापातालाणं कुड्डा सव्ववइरामया सव्वत्थ समा दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। सभी महापाताल (पातालकलश) एक लाख योजन गहरे कहे गये हैं। मूल भाग में वे दश हजार योजन विस्तृत कहे गये हैं। मूल भाग के विस्तार से दोनों ओर एक-एक प्रदेश की वृद्धि से बहुमध्यदेश भाग में एक लाख योजन विस्तार कहा गया है। ऊपर मुखमूल में उनका विस्तार दश हजार योजन कहा गया है। उन पातालों की भित्तियां सर्व वज्रमयी, सर्वत्र समान और सर्वत्र दश हजार योजन विस्तार वाली कही गई हैं (३४)। ३५- सव्वेवि णं खुद्दा पाताला दस जोयणसताइं उव्वेहेणं पण्णत्ता, मूले दसदसाइं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसियाए सेढीए दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पण्णत्ता, उवरि मुहमूले दसदसाइं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। तेसि णं खुड्डापातालाणं कुड्डा सव्ववइरामया सव्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। सभी छोटे पातालकलश एक हजार योजन गहरे कहे गये हैं। मूल भाग में उनका विस्तार सौ योजन कहा गया है। मूलभाग के विस्तार से दोनों ओर एक-एक प्रदेश की वृद्धि से बहुमध्य देशभाग में उनका विस्तार एक हजार योजन कहा गया है। ऊपर मुखमूल में उनका विस्तार सौ योजन कहा गया है। उन छोटे पातालों की भित्तियां सर्व वज्रमयी, सर्वत्र समान और सर्वत्र दश योजन विस्तार वाली कही गई है (३५)। पर्वत-सूत्र ३६- धायइसंडगा णं मंदरा दसजोयणसयाई उव्वेहेणं, धरणीतले देसूणाई दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उवरि दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। धातकीषण्ड के मन्दर पर्वत भूमि में एक हजार योजन गहरे, भूमितल पर, कुछ कम दश हजार योजन विस्तृत और ऊपर एक हजार योजन विस्तृत कहे गये हैं (३६)। ३७- पुक्खरवरदीवडगा णं मंदरा दस जोयणसयाई उव्वेहेणं, एवं चेव। पुष्करवरद्वीपार्ध के मन्दर पर्वत इसी प्रकार भूमि में एक हजार योजन गहरे, भूमितल पर कुछ कम दश हजार योजन विस्तृत और ऊपर एक हजार योजन कहे गये हैं (३७)।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy