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________________ स्थानाङ्गसूत्रम् अपेक्षा वधसामान्य से सभी प्रकार के दण्ड एक समान होने से 'एक दण्ड है' ऐसा कहा गया है। यहाँ दण्ड शब्द से पांच प्रकार के दण्ड ग्रहण किए गए हैं— (१) अर्थदण्ड, (२) अनर्थदण्ड, (३) हिंसादण्ड, (४) अकस्माद् दण्ड और (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड। ४- एगा किरिया । क्रिया एक है। (४) विवेचन- मन वचन काय के व्यापार को क्रिया कहते हैं। आगम में क्रिया के आठ भेद कहे गये हैं(१) मृषाप्रत्यया, (२) अंदत्तादानप्रत्यया, (३) आध्यात्मिकी, (४) मानप्रत्यया, (५) मित्रद्वेषप्रत्यया, (६) मायाप्रत्यया, (७) लोभप्रत्यया, और (८) ऐर्यापथिकी क्रिया। इन आठों ही भेदों में करण (करना) रूप व्यापार समान है, अतः क्रिया एक कही गयी है। प्रस्तुत दो सूत्रों में आगमोक्त १३ क्रियास्थानों का समावेश हो जाता है। ५- एगे लोए। ६- एगे अलोए। ७- एगे धम्मे। ८- एगे अहम्मे। ९- एगे बंधे। १०- एगे मोक्खे। ११- एगे पुण्णे। १२- एगे पावे। १३ – एगे आसवे। १४– एगे संवरे। १५– एगा वेयणा। १६– एगा णिज्जरा। लोक एक है (५)। अलोक एक है (६)। धर्मास्तिकाय एक है (७)। अधर्मास्तिकाय एक है (८)। बन्ध एक है (९)। मोक्ष एक है (१०)। पुण्य एक है (११)। पाप एक है (१२)। आस्रव एक है (१३)। संवर एक है (१४)। वेदना एक है (१५)। निर्जरा एक है (१६)। विवेचन- आकाश के दो भेद हैं - लोक और अलोक। जितने आकाश में जीवादि द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं, अर्थात् पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं और जहां पर आकाश के सिवाय अन्य कोई भी द्रव्य नहीं पाया जाता है, उसे अलोक कहते हैं। जीव और पुद्गलों के गमन में सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते हैं और उनकी स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं। योग और कषाय के निमित्त से कर्म-पुद्गलों का आत्मा के साथ बंधना बन्ध कहलाता है और उनका आत्मा से वियुक्त होना मोक्ष कहा जाता है। सुख का वेदन कराने वाले कर्म को पुण्य और दुःख का वेदन कराने वाले कर्म को पाप कहते हैं अथवा सातावेदनीय, उच्चगोत्र आदि शुभ अघातिकर्मों को पुण्य कहते हैं और असातावेदनीय, नीचगोत्र आदि अशुभकर्मों को पाप कहते हैं। आत्मा में कर्म-परमाणुओं के आगमन को अथवा बन्ध के कारण को आस्रव और उसके निरोध को संवर कहते हैं। आठों कर्मों के विपाक को अनुभव करना वेदना है और कर्मों का फल देकर झरने को— निर्गमन को निर्जरा कहते हैं। प्रकृत में द्रव्यास्तिकाय की अपेक्षा लोक, अलोक, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एक-एक ही द्रव्य हैं। तथा बन्ध, मोक्षादि शेष तत्त्व बन्धन आदि की समानता से एक-एक रूप ही हैं। अतः उन्हें एक-एक कहा गया । प्रकीर्णक सूत्र १७- एगे जीवे पाडिक्कएण सरीरएणं । प्रत्येक शरीर में जीव एक है (१७)।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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