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प्रथम स्थान
विवेचन- संसारी जीवों को शरीर की प्राप्ति शरीर-नामकर्म के उदय से होती है। ये शरीर-धारी संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं— प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी। जिस एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है, उसे प्रत्येकशरीरी जीव कहते हैं। जैसे- देव-नारक आदि। जिस एक शरीर के स्वामी अनेक जीव होते हैं, उन्हें साधारणशरीरी जीव कहते हैं। जैसे जमीकन्द, आलू, अदरक आदि। प्रकृत सूत्र में प्रत्येकशरीरी जीव विवक्षित है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि 'एगे आया' इस सूत्र में शरीर-मुक्त आत्मा विवक्षित है और प्रस्तुत सूत्र में कर्म-बद्ध एवं शरीर-धारक संसारी जीव विवक्षित है।
१८- एगा जीवाणं अपरिआइत्ता विगुव्वणा। १८- जीवों की अपर्यादाय विकुर्वणा एक है।
विवेचन- एक शरीर से नाना प्रकार की विक्रिया करने को विकुर्वणा कहते हैं। जैसे देव अपने-अपने वैक्रियिक शरीर से गज, अश्व, मनुष्य आदि नाना प्रकार की विक्रिया कर सकता है। इस प्रकार की विकुर्वणा को 'परितः समन्ताद् वैक्रियसमुद्घातेन बाह्यान् पुद्गलान् आदाय गृहीत्वा' इस निरुक्ति के अनुसार बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके की जाने वाली विक्रिया पर्यादाय-विकुर्वणा कहलाती है। जो विकुर्वणा बाहरी पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही भवधारणीय शरीर से अपने छोटे-बड़े आदि आकार रूप की जाती है, उसे अपर्यादाय-विकुर्वणा कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में इसी की विवक्षा की गयी है। यह सभी देव, नारक, मनुष्य और तिर्यंच के यथासंभव पायी जाती है।
१९- एगे मणे। २०- एगा वई। २१– एगे काय-वायामे। मन एक है (१९)। वचन एक है (२०)। काय-व्यायाम एक है (२१)।
विवेचन- व्यायाम का अर्थ है व्यापार। सभी जीवों के मन, वचन और काय का व्यापार यद्यपि विभिन्न प्रकार का होता है। यों मनोयोग और वचनयोग चार-चार प्रकार का तथा काययोग सात प्रकार का कहा गया है, किन्तु यहाँ व्यापार-सामान्य की विवक्षा से एकत्व कहा गया है।
२२- एगा उप्पा। २३- एगा वियती। उत्पत्ति (उत्पाद) एक है (२२)। विगति (विनाश) एक है (२३)।
विवेचन— वस्तु का स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है। यहाँ दो सूत्रों के द्वारा आदि के परस्पर सापेक्ष दो रूपों का वर्णन किया गया है।
२४- एगा वियच्चा। विगतार्चा एक है (२४)।
विवेचन- संस्कृत टीकाकार अभयदेवसूरि ने 'वियच्चा' इस पद का संस्कृतरूप 'विगतार्चा' करके विगत अर्थात् मृत और अर्चा अर्थात् शरीर, ऐसी निरुक्ति करके 'मृतशरीर' अर्थ किया है। तथा 'विवच्चा' पाठान्तर के अनुसार 'विवर्चा' पद का अर्थ विशिष्ट उपपत्ति, पद्धति या विशिष्ट वेशभूषा भी किया है। किन्तु मुनि नथमलजी ने उक्त अर्थों को स्वीकार न करके 'विगतार्चा' पद का अर्थ विशिष्ट चित्तवृत्ति किया है। इन सभी अर्थों में प्रथम अर्थ