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प्रथम स्थान
१- सुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एवमक्खायं हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है— उन भगवान् ने ऐसा कहा है। (१)
विवेचन- भगवान् महावीर के पांचवें गणधर श्री सुधर्मास्वामी जम्बू नामक अपने प्रधान शिष्य को सम्बोधित करते हुए कहते हैं— हे आयुष्मन् – चिरायुष्क ! मैंने अपने कानों से स्वयं ही सुना है कि उन अष्ट महाप्रातिहार्यादि ऐश्वर्य से विभूषित भगवान् महावीर ने तीसरे स्थानाङ्ग सूत्र के अर्थ का इस (वक्ष्यमाण) प्रकार से प्रतिपादन किया है। अस्तित्व सूत्र
२- एगे आया । आत्मा एक है। (२)
विवेचन जैन सिद्धान्त में वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन नय-दृष्टि की अपेक्षा से किया जाता है। वस्तु के विवक्षित किसी एक धर्म (स्वभाव/गुण) का प्रतिपादन करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। नय के मूल भेद दो हैंद्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय। भूत भविष्य और वर्तमान काल में स्थिर रहने वाले ध्रुव स्वभाव का प्रतिपादन द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से किया जाता है और प्रति समय नवीन-नवीन उत्पन्न होनेवाली पर्यायों—अवस्थाओं का प्रतिपादन पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से किया जाता है। प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है, अतः सामान्य धर्म की विवक्षा या मुख्यता से कथन करना द्रव्यार्थिकनय का कार्य है और विशेष धर्मों की मुख्यता से कथन करना पर्यायार्थिकनय का कार्य है। प्रत्येक आत्मा में ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग समानरूप से संसारी और सिद्ध सभी अवस्थाओं में पाया जाता है, अतः प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि आत्मा एक है, अर्थात् उपयोग स्वरूप से सभी आत्मा एक समान हैं। यह अभेद विवक्षा या संग्रह दृष्टि से कथन है। पर भेद-विवक्षा से आत्माएं अनेक हैं, क्योंकि प्रत्येक प्राणी अपने-अपने सुख-दुःख का अनुभव पृथक्-पृथक् ही करता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक आत्मा भी असंख्यात प्रदेशात्मक होने से अनेक रूप है। आत्मा के विषय में एकत्वप्रतिपादन जिस अभेद दृष्टि से किया गया है, उसी दृष्टि से वक्ष्यमाण एकस्थान-सम्बन्धी सभी सूत्रों का कथन भी जानना चाहिए ।
३- एगे दंडे । दण्ड एक है। (३)
विवेचन– आत्मा जिस क्रिया-विशेष से दण्डित अर्थात् ज्ञानादि गुणों से हीन या असार किया जाता है, उसे दण्ड कहते हैं। दण्ड दो प्रकार का होता है— द्रव्यदण्ड और भावदण्ड। लाठी-बेंत आदि से मारना द्रव्यदण्ड है। मन वचन काय की दुष्प्रवृत्ति को भावदण्ड कहते हैं। यहाँ पर दोनों दण्ड विवक्षित हैं, क्योंकि हिंसादि से तथा मन वचन काय की दुष्प्रवृत्ति से आत्मा के ज्ञानादि गुणों का ह्रास होता है। इस ज्ञानादि गुणों के ह्रास या हानि होने की