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अष्टम स्थान
केवलिसमुद्घात-सूत्र
११४—– अट्ठसमइए केवलिसमुग्घाते पण्णत्ते, तं जहा— पढमे समए दंडं करेति, बीए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समाए लोगं पूरेति, पंचमे समए लोगं पडिसाहरति, छट्ठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति ।
केवलिसमुद्घात आठ समय का कहा गया है, जैसे—१. केवली पहले समय में दण्ड समुद्घात करते हैं ।
२. दूसरे समय में कपाट समुद्घात करते हैं ।
३. तीसरे समय में मन्थान समुद्घात करते हैं।
४. चौथे समय में लोकपूरण समुद्घात करते हैं।
पांचवें समय में लोक-व्याप्त आत्मप्रदेशों का उपसंहार करते ( सिकोड़ते हैं ।
५.
६. छठे समय में मन्थान का उपसंहार करते हैं।
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७. सातवें समय में कपाट का उपसंहार करते हैं ।
८. आठवें समय में दण्ड का उपसंहार करते हैं (११४) ।
विबेचन—– सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं या नहीं करते हैं ? इस विषय में श्वे० और दि० शास्त्रों में दो-दो मान्यताएं स्पष्ट रूप से लिखित मिलती हैं। पहली मान्यता यही है कि सभी केवली भगवान् समुद्- घात करते हुए ही मुक्ति प्राप्त करते हैं । किन्तु दूसरी मान्यता यह है कि जिनको छह मास से अधिक आयुष्य के शेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वे समुद्घात नहीं करते हैं । किन्तु छह मास या इससे कम आयुष्य शेष रहने पर जिनको केवलज्ञान उत्पन्न होता है वे नियम से समुद्घात करते हुए ही मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
उक्त दोनों मान्यताओं में से कौन सत्य है और कौन सत्य नहीं, यह तो सर्वज्ञ देव ही जानें। प्रस्तुत सूत्र में केवलीसमुद्घात की प्रक्रिया और समय का निरूपण किया गया है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है—
जब केवली का आयुष्य कर्म अन्तर्मुहूर्तप्रमाण रह जाता है और शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक शेष रहती है, तब उनकी स्थिति का आयुष्यकर्म के साथ समीकरण करने के लिए समुद्घात किया जाता या होता है ।
समुद्घात के पहले समय में केवली के आत्म- प्रदेश ऊपर और नीचे की ओर लोकान्त तक शरीर - प्रमाण चौड़े आकार में फैलते हैं। उनका आकार दण्ड के समान होता है, अत: इसे दण्डसमुद्घात कहा जाता है। दूसरे समय में वे ही आत्म- प्रदेश पूर्व-पश्चिम दिशा में चौड़े होकर लोकान्त तक फैल कर कपाट के आकार के हो जाते हैं, अतः उसे कपाटसमुद्घात कहते हैं। तीसरे समय में वे ही आत्म-प्रदेश दक्षिण-उत्तर दिशा में लोक के अन्त तक फैल जाते हैं, इसे मन्थानसमुद्घात कहते हैं । दि० शास्त्रों में इसे प्रतरसमुद्घात कहते हैं। चौथे समय में वे आत्म-प्रदेश बीच के भागों सहित सारे लोक में फैल जाते हैं, इसे लोक- पूरणसमुद्घात कहते हैं। इस अवस्था में केवली के आत्म- प्रदेश और लोकाकाश के प्रदेश सम- प्रदेश रूप से अवस्थित होते हैं । इस प्रकार इन चार समयों में केवली के प्रदेश उत्तरोत्तर फैलते जाते हैं ।
पुनः
पांचवें समय में उनका संकोच प्रारम्भ होकर मंथान- आकार हो जाता है, छठे समय में कपाट - आकार