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स्थानाङ्गसूत्रम्
हो जाता है, सातवें समय में दण्ड-आकार हो जाता है और आठवें समय में वे शरीर में प्रवेश कर पूर्ववत् शरीराकार से अवस्थित हो जाते हैं।
इन आठ समयों के भीतर नाम, गोत्र और वेदनीय-कर्म की स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से निर्जरा होकर उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण रह जाती है। तब वे सयोगी जिन योगनिरोध की क्रिया करते हुए अयोगी बनकर चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पांच ह्रस्व अक्षरों के प्रमाणकाल में शेष रहे चारों अघातिकर्मों की एक साथ सम्पूर्ण निर्जरा करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अनुत्तरौपपातिक-सूत्र
११५- समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गतिकल्लाणाणं (ठितिकल्लाणाणं) आगमेसिभद्दाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयसंपया हुत्था।
श्रमण भगवान् महावीर के अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले साधुओं की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी। | वे कल्याणगतिवाले, कल्याणस्थितिवाले और आगामी काल में निर्वाण प्राप्त करने वाले हैं (११५)। वाणव्यन्तर-सूत्र
११६– अट्ठविधा वाणमंतरा देवा पण्णत्ता, तं जहा–पिसाया, भूता, जक्खा, रक्खसा, किण्णरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधव्वा।
वाण-व्यन्तर देव आठ प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. पिशाच, २. भूत, ३. यक्ष, ४. राक्षस, ५. किन्नर, ६. किम्पुरुष, ७. महोरग, ८. गन्धर्व (११६)।
११७- एतेसि णं अट्ठविहाणं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ चेइयरुक्खा पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी-गाथा
कलंबो उ पिसायाणं, वडो जक्खाण चेइयं । तुलसी भूयाण भवे, रक्खसाणं च कंडओ ॥ १॥ असोओ किण्णराणं च, किंपुरिसाणं तु चंपओ ।
णागरुक्खो भुयंगाणं, गंधवाणं य तेंदुओ ॥ २॥ आठ प्रकार के वाण-व्यन्तर देवों के आठ चैत्यवृक्ष कहे गये हैं, जैसे१. कदम्ब पिशाचों का चैत्यवृक्ष है। २. वट यक्षों का चैत्यवृक्ष है। ३. तुलसी भूतों का चैत्यवृक्ष है। ४. काण्डक राक्षसों का चैत्यवृक्ष है। ५. अशोक किन्नरों का चैत्यवृक्ष है। ६. चम्पक किम्पुरुषों का चैत्यवृक्ष है। ७. नागवृक्ष महोरगों का चैत्यवृक्ष है।