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सप्तम स्थान
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७. अश्लोक-भय- अपकीर्ति का भय (२७)।
विवेचन - संस्कृत टीकाकार ने सजातीय व मनुष्यादि से होने वाले भय को इहलोक भय और विजातीय तिर्यंच आदि से होने वाले भय को परलोक भय कहा है। दिगम्बर परम्परा में अश्लोक भय के स्थान पर अगुप्ति या , अत्राणभय कहा है, इसका अर्थ है—अरक्षा का भय। छद्मस्थ-सूत्र
२८- सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेजा, तं जहा—पाणे अइवाएत्ता भवति। मुसं वइत्ता भवति। अदिण्णं आदित्ता भवति। सद्दफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति। पूयासक्कारं अणुवूहेत्ता भवति। इमं सावजंति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति। णो जहावादी तहाकारी यावि भवति।
सात स्थानों से छद्मस्थ जाना जाता है, जैसे१. जो प्राणियों का घात करता है। २. जो मृषा (असत्य) बोलता है। ३. जो अदत्त (बिना दी) वस्तु को ग्रहण करता है। ४. जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का आस्वाद लेता है। ५. जो अपने पूजा और सत्कार का अनुमोदन करता है। ६. जो 'यह सावध (सदोष) है', ऐसा कहकर भी उसका प्रतिसेवन करता है।
७. जो जैसा कहता है, वैसा नहीं करता (२८)। केवलि-सूत्र
२९- सत्तहिं ठाणेहिं केवली जाणेजा, तं जहा—णो पाणे अइवाइत्ता भवति। (णो मुसं वइत्ता भवति। णो अदिण्णं आदित्ता भवति। णो सद्दफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति। णो पूयासक्कारं अणुवूहेत्ता भवति। इमं सावजंति पण्णवेत्ता णो पडिसेवेत्ता भवति।) जहावादी तहाकारी यावि भवति।
सात स्थानों (कारणों) से केवली जाना जाता है, जैसे१. जो प्राणियों का घात नहीं करता है। २. जो मृषा नहीं बोलता है। ३. जो अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करता है। ४. जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का आस्वादन नहीं लेता है। ५. जो पूजा और सत्कार का अनुमोदन नहीं करता है। ६. जो ‘यह सावध है' ऐसा कह कर उसका प्रतिसेवन नहीं करता है। ७. जो जैसा कहता है, वैसा करता है (२९)।