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________________ स्थानाङ्गसूत्रम् विवेचन – सूत्र की वाचना देने वाले को उपाध्याय और अर्थ की वाचना देने वाले को आचार्य कहते हैं। साधारण साधुओं की अपेक्षा आचार्य और उपाध्याय को जो विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं, उन्हें अतिशेष या अतिशय कहते हैं। आचार्य - उपाध्याय - गणापक्रमण - सूत्र १६७ – पंचहि ठाणेहिं आयरिय-उवज्झायस्स गणावक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा— १. आयरिय - उवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं पउंजित्ता भवति । २. आयरिय-उवज्झाए गणंसि आधारायणियाए कितिकम्मं वेणइयं णो सम्मं परंजित्ता भवति । ३. आयरिय-उवज्झाए गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारेति, ते काले-काले णो सम्ममणुपवादेत्ता भवति । ४. आयरिय-उवज्झाए गणंसि सगणियाए वा परगणियाए वा णिग्गंथीए बहिल्लेसे भवति । ५. मित्ते णातिगणे वा से गणाओ अवक्कमेज्जा, तेसिं संगहोवग्गहट्टयाए गणावक्कमणे पण्णत्ते । पांच कारणों से आचार्य और उपाध्याय का गणापक्रमण (गण से बाहर निर्गमन) कहा गया है, जैसे—– १. यदि आचार्य या उपाध्याय गण में आज्ञा या धारणा के सम्यक् प्रयोक्ता नहीं हों । २. यदि आचार्य और उपाध्याय गण में यथारानिक कृतिकर्म (वन्दन और विनयादिक) के सम्यक् प्रयोक्ता नहीं हों । ३. यदि आचार्य और उपाध्याय जिन श्रुत-पर्यायों को धारण करते हैं, उनकी समय-समय पर गण को सम्यक् वाचना नहीं देवें । ४. यदि आचार्य या उपाध्याय अपने गण की, या पर- गण की निर्ग्रन्थी में बहिर्लेश्य (आसक्त) हो जावें । ५. आचार्य या उपाध्याय के मित्र ज्ञातिजन ( कुटुम्बी आदि) गण से चले जायें तो उन्हें पुनः गण में संग्रह करने या उपग्रह करने के लिए गण से अपक्रमण करना कहा गया है (१६७) । विवेचन आचार्य और उपाध्याय गण के स्वामी और प्रधान होते हैं। उनका संघ या गण का सम्यक् प्रकार से संचालन करना कर्त्तव्य है । किन्तु जब वे यह अनुभव करते हैं कि गण में मेरी आज्ञा या धारणा की अवहेलना हो रही है, तो वे गण छोड़कर चले जाते हैं। दूसरा कारण वन्दन और विनय का सम्यक् प्रयोग न कर सकना है। यद्यपि आचार्य और उपाध्याय का गण में सर्वोपरि स्थान है, तथापि प्रतिक्रमण और क्षमा-याचना के समय दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ और श्रुत के विशिष्ट ज्ञाता साधुओं का विशेष सम्मान करना चाहिए। यदि वे अपने पद के अभिमान से वैसा नहीं करते हैं, तो गण में असन्तोष या विग्रह खड़ा हो जाता है, ऐसी दशा में वे गण छोड़कर चले जाते हैं। तीसरा कारण गणस्थ साधुओं को, स्वयं जानते हुए भी यथासमय सूत्र या अर्थ या उभय की वाचना न देना है। इससे गण में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और आचार्य या उपाध्याय पर पक्षपात का दोषारोपण होने लगता है। ऐसी दशा में उन्हें गण से चले जाने का विधान किया गया है। चौथा कारण संघ की निन्दा होने या प्रतिष्ठा गिरने का है, अतः उनका स्वयं ही गण से बाहर चले जाना उचित
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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