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पंचम स्थान द्वितीय उद्देश
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माना गया है।
पांचवां कारण मित्र या ज्ञातिजन के गण से चले जाने पर पुनः संयम में स्थिर करने या गण में वापिस लाने के लिए गण से बाहर जाने का विधान किया गया है।
सब का सारांश यही है कि जैसा करने से गण या संघ की प्रतिष्ठा, मर्यादा और प्रख्याति बनी रहे और अप्रतिष्ठा, अमर्यादा और अपकीर्ति का अवसर न आवे वही कार्य करना आचार्य और उपाध्याय का कर्तव्य है। ऋद्धिमत्-सूत्र
१६८ - पंचविहा इड्डिमंता मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा—अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, भावियप्पाणो अणगारा।
ऋद्धिमान् मनुष्य पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. अर्हन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेव, ४. वासुदेव, ५. भावितात्मा (१६८)।
विवेचन- वैभव, ऐश्वर्य और सम्पदा को ऋद्धि कहते हैं। मध्यवर्ती तीन महापुरुषों की ऋद्धि पूर्वभव के पुण्य से उपार्जित होती है। अर्हन्तों की ऋद्धि पूर्वभवोपार्जित और वर्तमानभव में घातिकर्मक्षयोपार्जित होती है। भावितात्मा अनगार की ऋद्धियाँ वर्तमान भव की तपस्या-विशेष से प्राप्त होती हैं। जो कि बुद्धि, क्रिया, विक्रिया आदि के भेद से अनेक प्रकार की शास्त्रों में बतलाई गई हैं।
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॥पंचम स्थान का द्वितीय उद्देश्य समाप्त ॥