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________________ पंचम स्थान — द्वितीय उद्देश २. दृतचित्त — सन्मान, लाभ, ऐश्वर्य आदि मद से या दुर्जय शत्रु को जीतने से जिसका चित्त दर्प को प्राप्त हो । ३. यक्षाविष्ट— पूर्वभव के वैर से, या रागादि से यक्ष के द्वारा आक्रांत हुई। ४. उन्मादप्राप्त— पित्त-विकार से उन्मत या पागल हुई । ५. उपसर्गप्राप्त—–— देव, मनुष्य या तिर्यंच कृत उपद्रव से पीड़ित । ४८७ ६. साधिकरण— कलह करती हुई या लड़ने के लिए उद्यत । ७. सप्रायश्चित्त— प्रायश्चित्त के भय से पीड़ित या डरी हुई । ८. भक्त-पान-प्रत्याख्यात— जीवन भर के लिए अशन-पान का त्याग करने वाली । ९. अर्थजात- अर्थ - (प्रयोजन - ) विशेष से, अथवा धनादि के लिए पति या चोर आदि के द्वारा संयम से चलायमान की जाती हुई । उपर्युक्त सभी दशाओं में निर्ग्रन्थी की रक्षार्थ निर्ग्रन्थ उसे ग्रहण या अवलम्बन देते हुए जिन-आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता । आचार्य - उपाध्याय - अतिशेष - सूत्र १६६ - आयरिय-उवज्झायस्स णं गणंसि पंच अतिसेसा पण्णत्ता, तं जहा १. आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए णिगज्झिय णिगज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णांतिक्कमति । २. आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोधेमाणे वा णातिक्कमति । ३. आयरिय-उवज्झाए पभू, इच्छा वेयावडियं करेज्जा, इच्छा णो करेज्जा । ४. आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एगओ वसमाणे णातिक्कमति । ५. आयरिय-उवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा [ एगओ ? ] वसमाणे णातिक्कमति । गण में आचार्य और उपाध्याय के पांच अतिशेष (अतिशय) कहे गये हैं, जैसे— १. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर पैरों की धूलि को सावधानी से झाड़ते हुए या फटकारते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। २. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर उच्चार (मल) और प्रस्रवण (मूत्र) का व्युत्सर्ग और विशोधन करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। ३. आचार्य और उपाध्याय की इच्छा तो वे दूसरे साधु की वैयावृत्त्य करें, इच्छा न हो तो न करें, इसके लिए प्रभु (स्वतन्त्र) हैं। ४. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर एक रात्रि या दो रात्रि अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । ५. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक रात्रि या दो रात्रि अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं (१६६) ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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