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________________ ४८६ स्थानाङ्गसूत्रम् भत्तपाणपडियाइक्खिय अट्ठजायं वा णिग्गंथे णिग्गंथिं गेण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति। पांच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थी को पकड़े या अवलम्बन दे तो भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है, जैसे १. कोई पशुजाति का या पक्षिजाति का प्राणी निर्ग्रन्थी को उपहत करे तो वहां निर्ग्रन्थी को ग्रहण करता या अवलम्बन (सहारा) देता हुआ निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। २. दुर्गम या विषम स्थान में फिसलती हुई या गिरती हुई निर्ग्रन्थी को ग्रहण करता या अवलम्बन देता हुआ निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। ३. दल-दल में या कीचड़ में, या काई में, या जल में फंसी हुई, या बहती हुई निर्ग्रन्थी को ग्रहण करता या अवलम्बन देता हुआ निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। ४. निर्ग्रन्थी को नाव में चढ़ाता हुआ या उतारता हुआ निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। ५. क्षिप्तचित्त या दृप्तचित्त या यक्षाविष्ट या उन्मादप्राप्त या उपसर्ग प्राप्त, या कलह-रत या प्रायश्चित्त से डरी हुई, या भक्त-पान-प्रत्याख्यात, (उपवासी) या अर्थजात (पति या किसी अन्य द्वारा संयम से च्युत की जाती हुई)निर्ग्रन्थी को ग्रहण करता या अवलम्बन देता निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है (१६५)। विवेचन– यद्यपि निर्ग्रन्थ को निर्ग्रन्थी के स्पर्श करने का सर्वथा निषेध है, तथापि जिन परिस्थिति-विशेषों में वह निर्ग्रन्थी का हाथ आदि पकड़ कर उसको सहारा दे सकता है या उसकी और उसके संयम की रक्षा कर सकता है, उन पांच कारणों का प्रस्तुत सूत्र में निर्देश किया गया है और तदनुसार कार्य करते हुए वह जिन-आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। प्रत्येक कारण में ग्रहण और अवलम्बन इन दो पदों का प्रयोग किया गया है। निर्ग्रन्थी को सर्वाङ्ग से पकड़ना ग्रहण कहलाता है और हाथ से उसके एक देश को पकड़ कर सहारा देना अवलम्बन कहलाता है। दूसरे कारण में 'दुर्ग' पद आया है। जहाँ कठिनाई से जाया जा सके ऐसे दुर्गम प्रदेश को दुर्ग कहते हैं। टीकाकार ने तीन प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है—१. वृक्षदुर्ग— सघन झाड़ी, २. श्वापददुर्ग— हिंसक पशुओं का निवासस्थान, ३. मनुष्यदुर्ग- म्लेच्छादि मनुष्यों की वस्ती। साधारणतः ऊबड़-खाबड़ भूमि को भी दुर्गम कहा जाता है। ऐसे स्थानों में प्रस्खलन या प्रपतन करती-गिरती या पड़ती हुई निर्ग्रन्थी को सहारा दिया जा सकता है। पैर का फिसलना, या फिसलते हुए भूमि पर हाथ-घुटने टेकना प्रस्खलन है और भूमि पर धड़ाम से गिर पड़ना प्रपतन दल-दल आदि में फंसी हुई निर्ग्रन्थी के मरण की आशंका है, इसी प्रकार नाव में चढ़ते या उतरते हुए पानी में गिरने का भय संभव है, इन दोनों ही अवसरों पर उसकी रक्षा करना साधु का कर्त्तव्य है। पांचवें कारण में दिये गये क्षिप्तचित्त आदि का अर्थ इस प्रकार है१. क्षिप्तचित्त— राग, भय या अपमानादि से जिसका चित्त विक्षिप्त हो। १. सव्वंगियं तु गहणं करेण अवलम्बणं तु देसम्मि। भूमीए असंपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुगादीहिं। पक्खलणं नायव्वं पवडणभूमीए गतेहिं ॥ (सूत्रकृताङ्गटीका, पत्र ३११) २.
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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