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________________ पंचम स्थान प्रथम उद्देश ४४७ है। उक्त पांच कारणों में से किसी एक-दो या सभी कारणों से साधु को पाराञ्चित करने की भगवान् की आज्ञा है। व्युद्ग्रहस्थान-सूत्र ४८- आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच वुग्गहट्ठाण पण्णत्ता, तं जहा१. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं पउंजित्ता भवति। २. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आधारातिणियाए कितिकम्मं णो सम्मं पउंजित्ता भवति। ३. आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपजवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्पवाइत्ता भवति। ४. आयरियउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममब्भुट्टित्ता भवति। ५. आयरियउवज्झाए णं गणंसि अणापुच्छियचारी यावि हवइ, णो आपुच्छियचारी। आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पांच व्युद्ग्रहस्थान (विग्रहस्थान) कहे गये हैं, जैसे१. आचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा तथा धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। २. आचार्य और उपाध्याय गण में यथारात्निक कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग न करें। ३. आचार्य और उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों (सूत्र के अर्थ-प्रकारों) को धारण करते हैं—जानते हैं उनकी समय-समय पर गण को सम्यक् वाचना न दें। ४. आचार्य और उपाध्याय गण में रोगी और नवदीक्षित साधुओं की वैयावृत्त्य करने के लिए सम्यक् प्रकार सावधान न रहें, समुचित व्यवस्था न करें। ५. आचार्य और उपाध्याय गण को पूछे बिना ही अन्यत्र विहार आदि करें, पूछ कर न करें (४८)। विवेचन– कलह के कारण को व्युद्ग्रहस्थान अथवा विग्रहस्थान कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बतलाये गये पांच स्थान आचार्य और उपाध्याय के लिए कलह के कारण होते हैं। सूत्र-पठित कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है १. आज्ञा— 'हे साधो ! आपको यह करना चाहिए' इस प्रकार के विधेयात्मक आदेश देने को आज्ञा कहते हैं। अथवा—कोई गीतार्थ साधु देशान्तर गया हुआ है। दूसरा गीतार्थ साधु अपने दोष की आलोचना करना चाहता है। वह अगीतार्थ साधु के सामने आलोचना कर नहीं सकता। तब वह अगीतार्थ साधु के साथ गूढ अर्थ वाले वाक्योंद्वारा अपने दोष का निवेदन देशान्तरवासी गीतार्थ साधु के पास करता है। ऐसा करने को भी टीकाकार ने 'आज्ञा' कहा है। २. धारणा- 'हे साधो! आपको ऐसा नहीं करना चाहिए', इस प्रकार आदेश को धारणा कहते हैं। अथवा बार-बार आलोचना के द्वारा प्राप्त प्रायश्चित्त-विशेष के अवधारण करने को भी टीकाकार ने धारणा कहा है। ३. यथारानिक कृतिकर्म- दीक्षा-पर्याय में छोटे-बड़े साधुओं के क्रम से वन्दनादि कर्तव्यों के निर्देश करने को यथारात्निक कृतिकर्म कहते हैं। ‘आचार्य या उपाध्याय अपने गण के साधुओं को उचित कार्यों के करने का विधान और अनुचित कार्यों का
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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