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________________ ४४६ स्थानाङ्गसूत्रम् विसंभोग-सूत्र ४६- पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा—१. सकिरियट्ठाणं पडिसेवित्ता भवति। २. पडिसेवित्ता णो आलोएइ। ३. आलोइत्ता णो पट्ठवेति। ४. पट्ठवेत्ता णो णिव्विसति। ५. जाइं इमाइं थेराणं ठितिपकप्पाइं भवंति ताई अतियंचियअतियंचिय पडिसेवेति, से हंदऽहं पडिसेवामि किं मंथेरा करेस्संति ? ___पांच स्थानों (कारणों) से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक साम्भोगिक को विसंभोगिक करे तो भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता, जैसे १. जो सक्रिय स्थान (अशुभ कर्म का बन्ध करने वाले अकृत्य कार्य) का प्रतिसेवन करता है। २. जो आलोचना करने योग्य दोष का प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता है। ३. जो आलोचना कर प्रस्थापन (गुरु-प्रदत्त प्रायश्चित्त का प्रारम्भ) नहीं करता है। ४. जो प्रस्थापन कर निर्वेशन (पूरे प्रायश्चित्त का सेवन) नहीं करता। ५. जो स्थविरों के स्थितिकल्प होते हैं, उनमें से एक के बाद दूसरे का अतिक्रमण कर प्रतिसेवना करता है तथा दूसरों के समझाने पर कहता है—लो, मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूँ, स्थविर मेरा क्या करेंगे? (४६)। विवेचन— साधु-मण्डली में एक साथ बैठ कर भोजन और स्वाध्याय आदि के करने वाले साधुओं को 'साम्भोगिक' कहते हैं। जब कोई साम्भोगिक साधु सूत्रोक्त पांच कारणों में से किसी एक-दो या सब ही स्थानों का प्रतिसेवन करता है, तब उसे आचार्य साधु-मण्डली से पृथक् कर देते हैं। ऐसे साधु को 'विसम्भोगिक' कहते हैं। उसे विसंभोगिक करते हुए आचार्य जिन-आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता, प्रत्युत पालन ही करता है। पारंचित-सूत्र ४७– पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं पारंचितं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा—१. कुले वसति कुलस्स भेदाए अब्भुट्ठिता भवति। २. गणे वसति गणस्य भेदाए अब्भुढेत्ता भवति। ३. हिंसप्पेही। ४. छिद्दप्पेही। ५. अभिक्खणं अभिक्खणं पसिणायतणाइं पउंजित्ता भवति। ___ पांच कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक को पाराञ्चित करता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है, जैसे १. जो साधु जिस कुल में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। २. जो साधु जिस गण में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। ३.जो हिंसाप्रेक्षी होता है (कल या गण के साध का घात करना चाहता है)। . ४. जो कुल या गण के सदस्यों का एवं अन्य जनों का छिद्रान्वेषण करता है। ५. जो बार-बार प्रश्नायतनों का प्रयोग करता है (४७)। विवेचन— अंगुष्ठ, भुजा आदि में देवता को बुलाकर लोगों के प्रश्नों का उत्तर देकर उन्हें चमत्कृत करना, सावध अनुष्ठान के प्रश्नों का उत्तर देना और असंयम के आयतनों (स्थानों) का प्रतिसेवन करना प्रश्नायतन कहलाता है। सूत्रोक्त पांच कारणों से साधु का वेष छुड़ा कर उसे संघ से पृथक् करना पाराञ्चित प्रायश्चित्त कहलाता
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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