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________________ पंचम स्थान प्रथम उद्देश ४४५ ४३ – पंच ठाणाइं (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई) भवंति, तं जहादंडायतिए, लगंडसाई, आतावए, अवाउडए, अकंडूयए ॥ श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं, जैसे १. दण्डायतिक— काठ के दंड के समान सीधे पैर पसार कर चित्त सोने वाला मुनि। २. लगंडशायी— एक करवट से या जिसमें मस्तक और एड़ी भूमि में लगे और पीठ भूमि में न लगे, ऊपर उठी रहे, इस प्रकार से सोने वाला मुनि।। ३. आतापक- शीत-ताप आदि को सहने वाला मुनि। ४. आपावृतक- वस्त्र-रहित होकर रहने वाला मुनि। ५. अकण्डूयक- शरीर को नहीं खुजाने वाला मुनि (४३)। महानिर्जर-सूत्र ४४- पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिजरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा—अगिलाए आयरियवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए थेरवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गिलाणवेयावच्चं करेमाणे। पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ महान् कर्म-निर्जरा करने वाला और महापर्यवसान (संसार का सर्वथा उच्छेद या जन्म-मरण का अन्त करने वाला) होता है, जैसे १. ग्लानि-रहित होकर आचार्य की वैयावृत्त्य करता हुआ। २. ग्लानि-रहित होकर उपाध्याय की वैयावृत्त्य करता हुआ। ३. ग्लानि-रहित होकर स्थविर की वैयावृत्त्य करता हुआ। ४. ग्लानि-रहित होकर तपस्वी की वैयावृत्त्य करता हुआ। ५. ग्लानि-रहित होकर ग्लान (रोगी मुनि) की वैयावृत्त्य करता हुआ (४४)। ४५ - पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिजरे महापजवसाणे भवति, तं जहा—अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे। पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ महान् कर्म-निर्जरा और पर्यवसान वाला होता है, जैसे१. ग्लानि-रहित होकर शैक्ष (नवदीक्षित मुनि) की वैयावृत्त्य करता हुआ। २. ग्लानि-रहित होकर कुल (एक आचार्य के शिष्य-समूह) की वैयावृत्त्य करता हुआ। ३. ग्लानि-रहित होकर गण (अनेक कुल-समूह) की वैयावृत्त्य करता हुआ। ४. ग्लानि-रहित होकर संघ (अनेक गण-समूह) की वैयावृत्त्य करता हुआ। ५. ग्लानि-रहित होकर साधर्मिक (समान समाचारी वाले) की वैयावृत्त्य करता हुआ (४५)।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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