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चतुर्थ स्थान – चतुर्थ उद्देश
४१७ १. औत्पत्तिकी मति— पूर्व अदृष्ट, अश्रुत और अज्ञात तत्त्व को तत्काल जानने वाली प्रत्युत्पन्न मति या अतिशायिनी प्रतिभा।
२. वैनयिकी मति— गुरुजनों की विनय और सेवा शुश्रूषा से उत्पन्न बुद्धि। ३. कार्मिकी मति— कार्य करते-करते बढ़ने वाली बुद्धि-कुशलता।
४. पारिणामिकी मति—अवस्था—उम्र बढ़ने के साथ बढ़ने वाली बुद्धि (६०६)। मति-सूत्र
६०७- चउव्विहा मई पण्णत्ता, तं जहा—उग्गहमती, ईहामती, अवायमती, धारणामती।
अहवा–चउव्विहा मती पण्णत्ता, तं जहा—अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगसमाणा, सागरोदगसमाणा।
पुनः मति चार प्रकार की कही गई है, जैसे१. अवग्रहमति— वस्तु के सामान्य धर्म-स्वरूप को जानना। २. ईहामति— अवग्रह से गृहीत वस्तु के विशेष धर्म को जानने की इच्छा करना। ३. अवायमति— उक्त वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चय होना। ४. धारणामति— कालान्तर में भी उस वस्तु का विस्मरण न होना। अथवा मति चार प्रकार की कही गई है, जैसे१. अरंजरोदकसमाना- अरंजर (घट) के पानी के समान अल्प बुद्धि। २. विदरोदकसमाना—विदर (गड्डा, खंसी) के पानी के समान अधिक बुद्धि। ३. सर-उदकसमाना— सरोवर के पानी के समान बहुत अधिक बुद्धि।
४. सागरोदकसमाना— समुद्र के पानी के समान असीम विस्तीर्ण बुद्धि (६०७)। जीव-सूत्र .
६०८- चउव्विहा संसारसमावण्णर्गा जीवा पण्णत्ता, तं जहा—णेरइया तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा।
संसारी जीव चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. नारक, २. तिर्यग्योनिक, ३. मनुष्य, ४. देव (६०८)। ६०९-चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा—मणजोगी, वइजोगी, कायजोंगी, अजोगी।
अहवा–चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा इत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, णपुंसकवेयगा, अवेयगा।
अहवा–चउब्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा–चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, ओहिदंसणी, केवलदसणी।
अहवा–चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा संजया, असंजया, संजयासंजया, णोसंजया