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________________ ४१६ स्थानाङ्गसूत्रम् २. शुभ और अशुभविपाक — कोई कर्म शुभ होता है, किन्तु उसका विपाक अशुभ होता है । ३. अशुभ और शुभविपाक—–— कोई कर्म अशुभ होता है, किन्तु उसका विपाक शुभ होता है। ४. अशुभ और अशुभविपाक — कोई कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ ही होता है (६०३) । विवेचन— उक्त चारों भंगों का खुलासा इस प्रकार है १. कोई जीव सातावेदनीय आदि पुण्यकर्म को बांधता है और उसका विपाक रूप शुभफल सुख को भोगता है। २. कोई जीव पहले सातावेदनीय आदि शुभकर्म को बांधता है और पीछे तीव्र कषाय से प्रेरित होकर असातावेदनीय आदि अशुभकर्म का तीव्र बन्ध करता है, तो उसका पूर्व - बद्ध सातावेदनीयादि शुभकर्म भी असातावेदनीयादि पापकर्म में संक्रान्त (परिणत) हो जाता है अत: वह अशुभ विपाक को देता है। ३. कोई जीव पहले असातावेदनीय आदि अशुभकर्म को बांधता है, किन्तु पीछे शुभ परिणामों की प्रबलता से सातावेदनीय आदि उत्तम अनुभाग वाले कर्म को बांधता है। ऐसे जीव का पूर्व - बद्ध अशुभ कर्म भी शुभकर्म के रूप में संक्रान्त या परिणत हो जाता है, अतएव वह शुभ विपाक को देता है। ४. कोई जीव पहले पापकर्म को बांधता है, पीछे उसके विपाक रूप अशुभफल को ही भोगता है। उक्त चारों प्रकारों में प्रथम और चतुर्थ प्रकार तो बन्धानुसारी विपाक वाले हैं तथा द्वितीय और तृतीय प्रकार संक्रमण-जनित परिणाम वाले हैं। कर्म सिद्धान्त के अनुसार मूल कर्म, चारों आयु कर्म, दर्शनमोह और चारित्रमोह का अन्य प्रकृति रूप संक्रमण नहीं होता। शेष सभी पुण्य-पाप रूप कर्मों का अपनी मूल प्रकृति के अन्तर्गत परस्पर में परिवर्तन रूप संक्रमण हो जाता है। ६०४— चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा पगडीकम्मे, ठितीकम्मे, अणुभावकम्मे, पदेसकम्मे । पुनः कर्म चार प्रकार का कहा गया है, जैसे— १. प्रकृतिकर्म — ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों को रोकने का स्वभाव । २. स्थितिकर्म — बंधे हुए कर्मों की काल मर्यादा । ३. अनुभावकर्म — बंधे हुए कर्मों की फलदायक शक्ति । - ४. प्रदेशकर्म कर्म - परमाणु का संचय (६०४)। संघ - सूत्र ६०५ - चउव्विहे संघे पण्णत्ते, तं जहा समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ । संघ चार प्रकार का कहा गया है, जैसे १. श्रमण संघ, २. श्रमणी संघ, ३. श्रावक संघ, ४. श्राविका संघ (६०५) । बुद्धि-सूत्र ६०६ –— चउव्विहा बुद्धी पण्णत्ता, तं जहा —— उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, परिणामिया । मति चार प्रकार की कही गई है, जैसे
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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