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स्थानाङ्गसूत्रम्
आयसंचेयणिज्जा।
उपसर्ग चार प्रकार का होता है, जैसे१. दिव्य-उपसर्ग— देव के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग। २. मानुष-उपसर्ग- मनुष्यों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग। ३. तिर्यग्योनिक उपसर्ग-तिर्यंचयोनि के जीवों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग। ४. आत्मसंचेतनीय उपसर्ग— स्वयं अपने द्वारा किया गया उपसर्ग (५९७) ।
विवेचन— संयम से गिराने वाली और चित्त को चलायमान करने वाली बाधा को उपसर्ग कहते हैं। ऐसी बाधाएं देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत तो होती हैं, कभी-कभी आकस्मिक भी होती हैं, उनको यहां आत्म-संचेतनीय कहा गया है। दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार में इसके स्थान पर 'अचेतनकृत उपसर्ग' का उल्लेख है जो बिजली गिरने उल्कापात, भूकम्प, भित्ति-पतन आदि जनित पीड़ाएं होती हैं, उनको अचेतनकृत उपसर्ग कहा गया है।
५९८- दिव्वा उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा—हासा, पाओसा, वीमंसा, पुढोवेमाता। दिव्य उपसर्ग चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. हास्य-जनित — कुतूहल-वश हँसी से किया गया उपसर्ग। २. प्रद्वेष-जनित — पूर्व भव के वैर से किया गया उपसर्ग। ३. विमर्श-जनित— परीक्षा लेने के लिए किया गया उपसर्ग। ४. पृथग्-विमात्र— हास्य, प्रद्वेषादि अनेक मिले-जुले कारणों से किया गया उपसर्ग (५९८)।
५९९- माणुसा उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा—हासा, पाओसा, वीमंसा, कुसीलपडिसेवणया।
मानुष उपसर्ग चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. हास्य-जनित उपसर्ग, २. प्रद्वेष-जनित उपसर्ग, ३. विमर्श-जनित उपसर्ग, ४. कुशील प्रतिसेवन के लिए किया गया उपसर्ग (५९९)।
६००– तिरिक्खजोणिया उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा—भया, पदोसा, आहारहेडं अवच्चलेण-सारक्खणया।
तिर्यंचों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. भय-जनित उपसर्ग, २. प्रद्वेष-जनित उपसर्ग, ३. आहार के लिए किया गया उपसर्ग, ४. अपने बच्चों के एवं आवास-स्थान के संरक्षणार्थ किया गया उपसर्ग (६००)। ६०१- आयसंचयणिज्जा उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा—घट्टणता, पवडणता, थंभणता,
जे केइ उवसग्गा देव-माणुस-तिरिक्खऽचेदणिया। (गा० ७, १५८ पूर्वार्ध) टीका-ये केचनोपसर्गा देव-मनुष्य-तिर्यक्-कृता; अचेतना विद्युदशन्यादयस्तान सर्वान् अध्यासे।