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[४३] वर्णन मिलता है।
स्थानांगसूत्र९४ के १२६वें सूत्र में तीन गुप्तियों एवं तीन दण्डकों का वर्णन है। समवायांग१९५ प्रश्नव्याकरण९६ उत्तराध्ययन और आवश्यक ९८ में भी यह वर्णन है।
स्थानांगसूत्र के १८२वें सूत्र में उपवास करनेवाले श्रमण को कितने प्रकार के धोवन पानी लेना कल्पता है, वह वर्णन समवायांग२००, प्रश्नव्याकरण२०१, उत्तराध्ययन२०२ और आवश्यकसूत्र२०३ में प्रकारान्तर से आया है।
स्थानांगसूत्र२० के २१४वें सूत्र में विविध दृष्टियों से ऋद्धि के तीन प्रकार बताये हैं। उसी प्रकार का वर्णन समवायांग, प्रश्नव्याकरण२०६ में भी आया है।
स्थानांगसूत्र२० के २२७वें सूत्र में अभिजित, श्रवण, अश्विनी, भरणी, मृगशिर, पुष्य, ज्येष्ठा के तीन-तीन तारे कहे हैं। वही वर्णन समवायांग२०८ और सूर्यप्रज्ञप्ति२०९ में भी प्राप्त है।
स्थानांगसूत्र२र० के २४७वें सूत्र में चार ध्यान और प्रत्येक ध्यान के लक्षण, आलम्बन बताये गये हैं, वैसा ही वर्णन समवायांगरेर, भगवती१२ और औपपातिक ९३ में भी है।
स्थानांगसूत्र२४ के २४९वें सूत्र में चार कषाय, उनकी उत्पत्ति के कारण आदि निरूपित हैं। वैसा ही समवायांग और प्रज्ञापना२१६ में भी वह वर्णन है।
१९४. स्थानांगसूत्र, अ. ३, उ. १, सूत्र १२६ १९५. समवायांग, सम. ३, सूत्र १ १९६: प्रश्नव्याकरणसूत्र, ५ वाँ संवरद्वार १९७. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३१ १९८. आवश्यकसूत्र, अ. ४ । १९९. स्थानांगसूत्र, अ.३, उ.३, सूत्र १८२ २००. समवायांग, सम. ३, सूत्र ३ २०१. प्रश्नव्याकरणसूत्र, ५ वाँ संवरद्वार २०२. उत्तराध्ययन, अ. ३१ २०३. आवश्यकसूत्र, अ. ४ ।। २०४. स्थानांग, अ. ३, उ. ४, सूत्र २१४ २०५. समवायांग, सम. ३, सूत्र ४ २०६. प्रश्नव्याकरण, ५ वाँ संवरद्वार २०७. स्थानांग, अ. ३, उ. ४, सूत्र २२७ २०८. समवायांग, ३, सूत्र ७ २०९. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रा. १०, प्रा. ९, सूत्र ४२ २१०. स्थानांगसूत्र, अ. ४, उ. १, सूत्र २४७ २११. समवायांग, सम. ४, सूत्र २ २१२. भगवती, शत. २५, उ. ७, सूत्र २८२ २१३. औपपातिकसूत्र ३० २१४. स्थानांग, अ. ४, उ. १, सूत्र २४९ २१५. समवायांग, सम. ४, सूत्र १ २१६. प्रज्ञापना, पद. १४, सूत्र १८६