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________________ ३७० स्थानाङ्गसूत्रम् तेउकाइयाणं, वणस्सइकाइयाणं। चार काय के जीवों का एक शरीर सुपश्य (सहज दृश्य) नहीं होता है, जैसे १.पृथ्वीकायिक जीवों का, २. अप्कायिक जीवों का, ३. तैजसकायिक जीवों का, ४. साधारण वनस्पतिकायिक जीवों का (४९६)। विवेचन- प्रकृत में 'सुपश्य नहीं' का अर्थ आँखों से दिखाई नहीं देता, यह समझना चाहिए, क्योंकि इन चारों ही कायों के जीवों में एक-एक जीव के शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग कही गई है। इतने छोटे शरीर का दिखना नेत्रों से सम्भव नहीं है। हां, अनुमानादि प्रमाणों से उनका जानना सम्भव है। इन्द्रियार्थ-सूत्र ४९७- चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदेति, तं जहा सोइंदियत्थे, घाणिंदियत्थे, जिब्भिदियत्थे, फासिंदियत्थे। चार इन्द्रियों के अर्थ (विषय) स्पष्ट होने पर ही अर्थात् इन विषयों का उनकी ग्राहक इन्द्रिय के साथ संयोग होने पर ही ज्ञान होता है, जैसे १. श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द, २. घ्राणेन्द्रिय का विषय-गन्ध, ३. रसनेन्द्रिय का विषय रस, और ४. स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श। (चक्षु-इन्द्रिय रूप के साथ संयोग हुए बिना ही अपने विषय-रूप को देखती है) (४९७)। अलोक-अगमन-सूत्र ४९८- चउहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचाएंति बहिया लोगंता गमणयाए, तं जहा—गतिअभावेणं, णिरुवग्गहयाए, लुक्खताए, लोगाणुभावेणं। चार कारणों से जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर गमन करने के लिए समर्थ नहीं हैं, जैसे१. गति के अभाव से— लोकान्त से आगे इनका गति करने का स्वभाव नहीं होने से। २. निरुपग्रहता से- धर्मास्तिकाय रूप उपग्रह या निमित्त कारण का अभाव होने से। ३. रूक्ष होने से— लोकान्त में स्निग्ध पुद्गल भी रूक्ष रूप से परिणत हो जाते हैं, जिससे उनका आगे गमन सम्भव नहीं तथा कर्म-पुद्गलों के भी रूक्ष रूप से परिणत हो जाने के कारण संसारी जीवों का भी गमन सम्भव नहीं रहता। सिद्ध जीव धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकान्त से आगे नहीं जाते। ४. लोकानुभाव से- लोक की स्वाभाविक मर्यादा ऐसी है कि जीव और पुद्गल लोकान्त से आगे नहीं जा सकते (४९८)। ज्ञात-सूत्र ४९९- चउविहे णाते पण्णत्ते, तं जहा—आहरणे, आहरणतद्देसे, आहरणतदोसे, उवण्णासोवणए। ज्ञात (दृष्टान्त) चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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