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________________ चतुर्थ स्थान ३६९ जीव के बहिर्गमन करने के बाद भी निर्जीव या मुर्दा औदारिकशरीर अमुक काल तक ज्यों का त्यों पड़ा रहता है, उसके परमाणुओं का वैक्रियादि शरीरों के समान तत्काल विघटन नहीं होता है । - तृतीय उद्देश चार शरीरों को कार्मणशरीर से संयुक्त कहा गया है, उसका अर्थ यह है कि अकेला कार्मणशरीर कभी नहीं पाया जाता है। जब भी और जिस किसी भी गति में वह मिलेगा, तब वह औदारिकादि चार शरीरों में से किसी एक, दो या तीन के साथ सम्मिश्र, संपृक्त या संयुक्त ही मिलेगा। इसी कारण से जीव-युक्त चार शरीरों को कार्मणशरीरसंयुक्त कहा गया है। स्पृष्ट-सूत्र ४९३ – चउहिं अत्थिकाएहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, 'जहा धम्मत्थिकाएणं, अधम्मत्थिकाएणं, जीवत्थिकाएणं, पुग्गलत्थिकाएणं । चार अस्तिकायों से यह सर्व लोक स्पृष्ट (व्याप्त) है, जैसे १. धर्मास्तिकाय से, २. अधर्मास्तिकाय से, ३. जीवास्तिकाय से और ४. पुद्गलास्तिकाय से (४९३) । ४९४— चउहिं बादरकाएहिं उववज्जमाणेहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा—पुढविकाइएहिं, आउकाइएहिं, वाउकाइएहिं, वणस्सइकाइएहिं। निरन्तर उत्पन्न होने वाले चार अपर्याप्तक बादरकायिक जीवों के द्वारा यह सर्वलोक स्पृष्ट कहा गया है, जैसे १. बादर पृथ्वीकायिक जीवों से, २. बादर अप्कायिक जीवों से, ३. बादर वायुकायिक जीवों से, ४. बादर वनस्पतिकायिक जीवों से (४९४) । विवेचन — इस सूत्र में बादर तेजस्कायिक जीवों का नामोल्लेख नहीं करने का कारण यह है कि वे सर्व लोक में नहीं पाये जाते हैं, किन्तु केवल मनुष्य क्षेत्र में ही उनका सद्भाव पाया जाता है। हाँ, सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव सर्व लोक में व्याप्त पाये जाते हैं, किन्तु 'बादरकाय' इस सूत्र - पठित पद से उनका ग्रहण नहीं होता है । बादर पृथ्वीकायिकादि चारों काया के जीव निरन्तर मरते रहते हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी निरन्तर होती रहती है। तुल्य- प्रदेश - सूत्र ४९५— चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा— धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, चार अस्तिकाय द्रव्य प्रदेशाग्र (प्रदेशों के परिमाण) की अपेक्ष से तुल्य कहे गये हैं, जैसे— १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. लोकाकाश, ४. एकजीव । इन चारों के असंख्यात प्रदेश होते हैं और वे बराबर-बराबर हैं (४९५)। नो सुपश्य-सूत्र ४९६— चउण्हमेगं सरीरं णो सुपस्सं भवइ, तं जहा — पुढविकाइयाणं, आउकाइयाणं,
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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