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________________ [४०] काँटों से वेध देते हैं। इस तरह श्रमणोपासक के सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री है। श्रमणोपासक की तरह ही श्रमणजीवन के सम्बन्ध में भी स्थानांग में महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन हुआ है। श्रमण का जीवन अत्यन्त उग्र साधना का है। जो धीर, वीर और साहसी होते हैं, वे इस महामार्ग को अपनाते हैं। श्रमणजीवन हर साधक, जो मोक्षाभिलाषी है, स्वीकार कर सकता है। स्थानांग में प्रव्रज्याग्रहण करने के दश कारण बताये हैं । १३८ यों अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु प्रमुख कारणों का निर्देश किया गया है। वृत्तिकार १३९ ने दश प्रकार की प्रव्रज्या के उदाहरण भी दिये हैं। (१) छन्दा— अपनी इच्छा से विरक्त होकर प्रव्रज्या धारण करना। (२) रोषा— क्रोध के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । (३) दारिद्र्यद्यूना — गरीबी के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । (४) स्वप्ना — स्वप्न से वैराग्य उत्पन्न होकर दीक्षा लेना । (५) प्रतिश्रुता— पहले की गयी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये प्रव्रज्या ग्रहण करना । (६) स्मरणिका — पूर्व भव की स्मृति के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । (७) रोगिनिका— रुग्णता के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना। (८) अनादृता — अपमान के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना। (९) देवसंज्ञप्तता — देवताओं के द्वारा संबोधित किये जाने पर प्रव्रज्या ग्रहण करना। (१०) वत्सानुबंधिका— दीक्षित पुत्र के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । श्रम प्रव्रज्या के साथ ही स्थानांग में श्रमणधर्म की सम्पूर्ण आचारसंहिता दी गई है। उसमें पाँच महाव्रत, अष्ट प्रवचनमाता, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, परीषहविजय, प्रत्याख्यान, पाँच-परिज्ञा, बाह्य और आभ्यन्तर तप, प्रायश्चित्त, आलोचना करने का अधिकारी, आलोचना के दोष, प्रतिक्रमण के प्रकार, विनय के प्रकार, वैयावृत्त्य के प्रकार, स्वाध्याय- ध्यान, अनुप्रेक्षाएँ, मरण a. प्रकार, आचार के प्रकार, संयम के प्रकार, आहार के कारण, गोचरी के प्रकार, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, भिक्षु - प्रतिमाएँ, प्रतिलेखना के प्रकार, व्यवहार के प्रकार, संघ व्यवस्था, आचार्य उपाध्याय के अतिशय, गण छोड़ने के कारण, शिष्य और स्थविर कल्प, समाचारी सम्भोग - विसम्भोग, निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के विशिष्ट नियम आदि के श्रमणाचार - सम्बन्धी नियमोपनियमों का वर्णन है। जो नियम अन्य आगमों में बहुत विस्तार के साथ आये हैं, उनका संक्षेप में यहाँ सूचन किया है। जिससे श्रमण उन्हें स्मरण रखकर सम्यक् प्रकार उनका पालन कर सके । तुलनात्मक अध्ययन : आगम के आलोक में स्थानांग सूत्र में शताधिक विषयों का संकलन हुआ है। इसमें जो सत्य-तथ्य प्रकट हुए हैं उनकी प्रतिध्वनि अन्य आगमों में निहारी जा सकती है। कहीं-कहीं पर विषय - साम्य हैं तो कहीं-कहीं पर शब्द साम्य है । स्थानांग के विषयों की अन्य आगमों के साथ तुलना करने से प्रस्तुत आगम का सहज की महत्त्व परिज्ञात होता है। हम यहाँ बहुत ही संक्षेप में स्थानांगगत-विषयों की तुलना अन्य आगमों के आलोक में कर रहे हैं। स्थानांग ४० में द्वितीय सूत्र है "एगे आया" । यही सूत्र समवायांग १४१ में भी शब्दशः मिलता है। भगवती १४२ में इसी का द्रव्य दृष्टि से निरूपण है। स्थानांग का चतुर्थ सूत्र "एगा किरिया " है । १४३ समवायांग १४४ में भी इसका शब्दशः उल्लेख है। भगवती १४५ और १३८. स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७१२ १३९. स्थानांगसूत्र, वृत्ति पत्र - पृ. ४४९ १४०. स्थानांगसूत्र, स्थान १० सूत्र २ मुनि कन्हैयालालजी सम्पादित १४१. समवायांगसूत्र, समवाय - १०, सूत्र - १ १४२. भगवतीसूत्र, शतक १२, उद्दे. १० १४३. स्थानांग, अ. १, सूत्र ४ १४४. समवायांग, सम. १, सूत्र ५ १४५. भगवती, शतक १, उद्दे. ६
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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