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________________ [३९] धर्म के दो भेद हैं— सागार - धर्म और अनगार - धर्म । सागार-धर्म-सीमित मार्ग है । वह जीवन की सरल और लघु पगडण्डी है। गृहस्थ धर्म अणु अवश्य है किन्तु हीन और निन्दनीय नहीं है। इसलिए सागार धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति श्रमणोपासक या उपासक कहलाता है । १३१ स्थानांग में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का मार्ग कहा है।९३२ उपासकजीवन में सर्वप्रथम सत्य के प्रति आस्था होती है। सम्यग्दर्शन के आलोक में वह जड़ और चेतन, संसार और मोक्ष, धर्म और अधर्म का परिज्ञान करता है। उस की यात्रा का लक्ष्य स्थिर हो जाता है। उसका सोचना समझना और बोलना, सभी कुछ विलक्षण होता है । उपासक के लिये "अभिगयजीवाजीवे" यह विशेषण आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर व्यवहृत हुआ है। स्थानांग के द्वितीय स्थान में इस सम्बन्ध में अच्छा चिन्तन प्रस्तुत किया है।१३३ मोक्ष की उपलब्धि के साधनों के विषय में सभी दार्शनिक एकमत नहीं हैं। जैन दर्शन न एकान्त ज्ञानवादी है, न क्रियावादी है, न भक्तिवादी उसके अनुसार ज्ञान-क्रिया और भक्ति का समन्वय ही मोक्षमार्ग है। स्थानांग में १३४ “ विज्जाए चेव चरणेण चेव" के द्वारा इस सत्य को उद्घाटित किया है। स्थानांग९३५ में उपासक के लिये पाँच अणुव्रतों का भी उल्लेख है । उपासक को अपना जीवन, व्रत से युक्त बनाना चाहिये। श्रमणोपासक की श्रद्धा और वृति की भिन्नता के आधार पर इसको चार भागों में विभक्त किया है। जिनके अन्तर्मानस श्रमण के प्रति प्रगाढ़ वात्सल्य होता है, उनकी तुलना माता-पिता से की है।३६ वे तत्त्वचर्चा और जीवननिर्वाह इन दोनों प्रसंगों में वात्सल्य का परिचय देते हैं। कितने ही श्रमणोपासकों के अन्तर्मन में वात्सल्य भी होता है और कुछ उग्रता ही रही होती है। उनकी तुलना भाई से की गयी है। वैसे श्रावक तत्त्वचर्चा के प्रसंगों में निष्ठुरता का परिचय देते हैं । किन्तु जीवन-निर्वाह के प्रसंग में उनके हृदय में वत्सलता छलकती है। कितने ही श्रमणोपासकों में सापेक्ष वृत्ति होती है। यदि किसी कारणवश प्रीति नष्ट हो गयी तो वे उपेक्षा भी करते हैं। वे अनुकूलता के समय वात्सल्य का परिचय देते हैं और प्रतिकूलता के समय उपेक्षा भी कर देते हैं। कितने ही श्रमणोपासक ईर्ष्या के वशीभूत होकर श्रमणों में दोष ही निहारा करते हैं। वे किसी भी रूप में श्रमणों का उपकार नहीं करते हैं। उनके व्यवहार की तुलना सौत से की गई है। 1 1 प्रस्तुत आगम में १३७ श्रमणोपासक की आन्तरिक योग्यता के आधार पर चार वर्ग किये हैं— (१) कितने ही श्रमणोपासक दर्पण के समान निर्मल होते हैं। वे तत्त्वनिरूपण के यथार्थ प्रतिबिम्ब को ग्रहण करते हैं। (२) कितने ही श्रमणोपासक ध्वजा की तरह अनवस्थित होते हैं । ध्वजा जिधर भी हवा होती है, उधर ही मुड़ जाती है । उसी प्रकार उन श्रमणोपासकों का तत्त्वबोध अनवस्थित होता है। निश्चित-बिन्दु पर उनके विचार स्थिर नहीं होते । (३) कितने ही श्रमणोपासक स्थाणु की तरह प्राणहीन और शुष्क होते हैं। उनमें लचीलापन नहीं होता। वे आग्रही होते हैं। (४) कितने ही श्रमणोपासक काँटे के सदृश होते हैं। काँटे की पकड़ बड़ी मजबूत होती है। वह हाथ को बींध देता है। वस्त्र भी फाड़ देता है। वैसे ही कितने ही श्रमणोपासक कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। श्रमण कदाग्रह छुड़वाने के लिये उसे तत्त्वबोध प्रदान करते हैं । किन्तु वे तत्त्वबोध को स्वीकार नहीं करते। अपितु तत्त्वबोध प्रदान करने वाले को दुर्वचनों के तीक्ष्ण १३१. स्थानांगसूत्र, स्थान २, सूत्र ७२ १३२. स्थानांगसूत्र, स्थान ३, सूत्र ४३ से १३७ १३३. स्थानांगसूत्र, स्थान २ १३४. स्थानांगसूत्र, स्थान २, सूत्र ४० १३५. स्थानांगसूत्र, स्थान ५, सूत्र ३८९ १३६. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, सूत्र ४३० १३७. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, सूत्र ४३१
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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