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________________ [३८] लगता है और प्रतिवादी को प्रेरणा देकर के वाद को शीघ्र प्रारम्भ कराता है।१२६ (३) वादी सामनीति से विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बनाकर वाद का प्रारम्भ करता है। या प्रतिवादी को अनुकूल बनाकर वाद प्रारम्भ कर देता है। उसके पश्चात् उसे वह पराजित कर देता है ।१२० । (४) यदि वादी को यह आत्म-विश्वास हो कि प्रतिवादी को हराने में वह पूर्ण समर्थ है तो वह सभापति और प्रतिवादी को अनुकूल न बनाकर प्रतिकूल ही बनाता है और प्रतिवादी को पराजित करता है। (५) अध्यक्ष की सेवा करके वाद करना। (६) जो अपने पक्ष में व्यक्ति हैं उनका अध्यक्ष से मेल कराता है। और प्रतिवादी के प्रति अध्यक्ष के मन में द्वेष पैदा करता है। स्थानांग में वादकथा के दश दोष गिनाये हैं।२८ वे इस प्रकार हैं (१) तज्जातदोष-प्रतिवादी के कुल का निर्देश करके उसके पश्चात् दूषण देना अथवा प्रतिवादी की प्रकृष्ट प्रतिभा से विक्षुब्ध होने के कारण वादी का चुप हो जाना। (२) मतिभंग-वाद-प्रसंग में प्रतिवादी या वादी का स्मृतिभ्रंश होना। (३) प्रशास्तदोष-वाद-प्रसंग में सभ्य या सभापति-पक्षपाती होकर जय-दान करें या किसी को सहायता दें। . (४) परिहरण-सभा के नियम-विरुद्ध चलना या दूषण का परिहार जात्युत्तर से करना। (५) स्वलक्षण- अतिव्याप्ति आदि दोष। (६) कारण- युक्तिदोष। (७) हेतुदोष- असिद्धादि हेत्वाभास । (८) संक्रमण–प्रतिज्ञान्तर करना। या प्रतिवादी के पक्ष को मानना। टीकाकार ने लिखा है—प्रस्तुत प्रमेय की चर्चा ___ का त्यागकर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना। (९) निग्रह - छलादि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना। (१०) वस्तदोष-पक्ष-दोष अर्थात प्रत्यक्षनिराकत आदि। न्यायाशास्त्र में इन सभी दोषों के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन है। अत: इस सम्बन्ध में यहां विशेष विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। स्थानांग में विशेष प्रकार के दोष भी बताये हैं और टीकाकार ने उस पर विशेष-वर्णन भी किया है। छह प्रकार के वाद के लिए प्रश्नों का वर्णन है। नयवाद९ का और निह्नववाद'३० का वर्णन है । जो उस युग के अपनी दृष्टि से चिन्तक रहे हैं। बहुत कुछ वर्णन जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा है। यदि विस्तार के साथ तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन किया जाये तो दर्शन-सम्बन्धी अनेक अज्ञात-रहस्य उद्घाटित हो सकते हैं। आचार-विश्लेषण दर्शन की तरह आचार सम्बन्धी वर्णन भी स्थानांग में बहुत ही विस्तार के साथ किया गया है। आचारसंहिता के सभी मूलभूत तत्त्वों का निरूपण इसमें किया गया है। १२६. तुलना कीजिये चरक विमानस्थान, अ. ८, सूत्र २१ १२७. तुलना कीजिये चरक विमानस्थान, अ.८, सूत्र १६ १२८. स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७४३ १२९. स्थानांगसूत्र, स्थान-७ १३०. स्थानांगसूत्र, स्थान ७
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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