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[३७] स्थानांग में प्रमाण शब्द के स्थान पर "हेतु" शब्द का प्रयोग मिलता है ।१६ ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्ष आदि को हेतु शब्द से व्यवहत करने में औचित्यभंग भी नही है। चरक में भी प्रमाणों का निर्देश "हेतु" शब्द से हुआ है ।१७ स्थानांग में ऐतिह्य के स्थान पर आगम शब्द व्यवहृत हुआ है। किन्तु चरक में ऐतिह्य को ही आगम कहा है।१८
स्थानांग में निक्षेप पद्धति से प्रमाण के चार भेद भी प्रतिपादित हैं—११९ द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण। यहाँ पर प्रमाण का व्यापक अर्थ लेकर उसके भेदों की परिकल्पना की है। अन्य दार्शनिकों की भाँति केवल प्रमेयसाधक तीन, चार, छह आदि प्रमाणों का ही समावेश नहीं है। किन्तु व्याकरण और कोष आदि से सिद्ध प्रमाण शब्द के सभी-अर्थों का समावेश करने का प्रयत्न किया है। यद्यपि मूल-सूत्र में भेदों की गणना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा गया है। बाद के आचार्यों ने इन पर विस्तार से विश्लेषण किया है। स्थानाभाव में हम इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं कर रहे हैं।
स्थानांग में तीन प्रकार के व्यवसाय बताये हैं।२० प्रत्यक्ष "अवधि" आदि, प्रात्ययिक-"इन्द्रिय और मन के निमित्त से" होने वाला, आनुगमिक-"अनुसरण करने वाला।" व्यवसाय का अर्थ है-निश्चय या निर्णय। यह वर्गीकरण ज्ञान के आधार पर किया गया है। आचार्य सिद्धसेन से लेकर सभी तार्किकों ने प्रमाण को स्व-पर व्यवसायी माना है। वार्तिककार शान्ताचार्य ने न्यायावतारगत अवभास का अर्थ करते हुए कहा—अवभास व्यवसाय है, न कि ग्रहणमात्र ।२१ आचार्य अकलंक आदि ने भी प्रमाणलक्षण में "व्यवसाय" पद को स्थान दिया है और प्रमाण को व्यवसायात्मक कहा है।१२२ स्थानांग में व्यवसाय बताये गये हैं— प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक-आगम और आनुगामिक-अनुमान। इन तीन की तुलना वैशेषिक दर्शन सम्मत प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों से की जा सकती है।
भगवान् महावीर के शिष्यों में चार सौ शिष्य वाद-विद्या में निपुण थे।१२३ नवमें स्थान में जिन नव प्रकार के विशिष्ट व्यक्तियों को बताया है उनमें वाद-विद्या विशारद व्यक्ति भी हैं। बृहत्कल्प भाष्य में वादविद्याकुशल श्रमणों के लिये शारीरिक शुद्धि आदि करने के अपवाद भी बताये हैं ।२४ वादी को जैन धर्म प्रभावक भी माना है। स्थानांग में विवाद के छह प्रकारों का भी निर्देश है ।२५ अवष्वक्य, उत्ष्वक्य, अनुलोम्य, प्रतिलोम्य, भेदयित्वा, मेलयित्वा। वस्तुतः ये विवाद के प्रकार नहीं, किन्तु वादी और प्रतिवादी द्वारा अपनी विजयवैजयन्ती फहराने के लिये प्रयुक्त की जाने वाली युक्तियों के प्रयोग हैं। टीकाकार ने यहाँ विवाद का अर्थ "जल्प" किया है।
जैसे—(१) निश्चित समय पर यदि वादी की वाद करने की तैयारी नहीं है तो वह स्वयं बहाना बनाकर सभास्थान का त्याग कर देता है या प्रतिवादी को वहाँ से हटा देता है। जिससे वाद में विलम्ब होने के कारण वह उस समय अपनी तैयारी कर लेता है।
(२) जब वादी को यह अनुभव होने लगता है कि मेरे विजय का अवसर आ चुका है, तब वह सोल्लास बोलने
११६. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, सूत्र ३३८ ११७. चरक विमानस्थान, अ. ८, सूत्र ३३ ११८. चरक विमानस्थान, अ. ८, सूत्र ४१ ११९. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, सूत्र २५८ १२०. स्थानांगसूत्र, स्थान ३, सूत्र १८५ १२१. न्यायावतारवार्तिक, वृत्ति-कारिका ३ १२२. न्यायावतारवार्तिक वृत्ति के टिप्पण पृ. १४८ से १५१ तक १२३. स्थानांगसूत्र, स्थान ९, सूत्र ३८२ १२४. बृहत्कल्प भाष्य ६०३५ १२५. स्थानांगसूत्र, स्थान ६, सूत्र ५१२