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स्थानाङ्गसूत्रम्
दिव्वमाणुस्सए कामभोगे अणासाएमाणे जाव [अपीहेमाणे अपत्थेमाणे ] अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावजति–तच्चा सुहसेजा।
४. अहावरा चउत्था सुहसेज्जा से णं मुंडे जाव [भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइए, तस्स णं एवं भवति–जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा बलिया कल्लसरीरा अण्णयराइं ओरालाई कल्लाणाई विउलाई पयताई पग्गहिताई महाणुभागाइं कम्मक्खयकारणाइं तवोकम्माइं पडिवजंति, किमंग पुण अहं अब्भोवगमिओवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि ?
ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं [ वेयणं ?] सम्ममसहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खेमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मण्णे कजति ?
एगंतसो मे पावे किम्मे कज्जति।।
ममं च णं अब्भोवगमिओ जाव (विक्कमियं [ वेयणे ?]) सम्मं सहमाणस्स जाव [खममाणस्स तितिक्खेमाणस्स] अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ?
एगंतसो मे णिजरा कजति–चउत्था सुहसेज्जा। चार सुख-शय्याएं कही गई हैं
१. उनमें पहली सुख-शय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो, निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित, अभेद-समापन्न और अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है और रुचि करता है। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, मन को ऊँचा-नीचा नहीं करता है (किन्तु समता को धारण करता है), वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है (किन्तु धर्म में स्थिर रहता है)। यह उसकी पहली सुखशय्या है।
२. दूसरी सुख-शय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रव्रजित हो, अपने (भिक्षा-) लाभ से संतुष्ट रहता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, इच्छा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है। वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, इच्छा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ और अभिलाषा नहीं करता हुआ मन को ऊँचा-नीचा नहीं करता है । वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है। यह उसकी दूसरी सुख-शय्या है।
३. तीसरी सुख-शय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रव्रजित होकर देवों के और मनुष्यों के काम-भोगों का आस्वाद नहीं करता, इच्छा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है। वह उनका आस्वाद नहीं करता हुआ, इच्छा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ और अभिलाषा नहीं करता हुआ मन को ऊँचा-नीचा नहीं करता है। वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है। यह उसकी तीसरी सुख-शय्या है।
४. चौथी सुख-शय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुआ। तब उसको ऐसा विचार होता है—जब यदि अर्हन्त भगवन्त हष्ट-पुष्ट, नीरोग, बलशाली और स्वस्थ शरीर वाले होकर भी कर्मों का क्षय करने के लिए उदार, कल्याण, विपुल, प्रयत, प्रगृहीत, महानुभाग, कर्म-क्षय करने वाले अनेक प्रकार के तपःकर्मों में से अन्यतर तपों को स्वीकार करते हैं, तब मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को क्यों न