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________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ३५१ सम्यक् प्रकार से सहूं ? क्यों न क्षमा धारण करूं? और क्यों न वीरता-पूर्वक वेदना में स्थिर रहूं? यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करूंगा, क्षमा धारण नहीं करूंगा और वीरता-पूर्वक वेदना में स्थिर नहीं रहूंगा, तो मुझे क्या होगा ? मुझे एकान्त रूप से पाप कर्म होगा ? यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सम्यक् प्रकार से सहन करूंगा, क्षमा धारण करूंगा और वीरतापूर्वक वेदना में स्थिर रहूंगा तो मुझे क्या होगा? एकान्त रूप से मेरे कर्मों की निर्जरा होगी। यह उसकी चौथी सुखशय्या है (४५१)। विवेचन– दुःखशय्या और सुखशय्या के सूत्रों में आये कुछ विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है १. शंकित— निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका-शील रहना यह सम्यग्दर्शन का प्रथम दोष है और निःशंकित रहना यह सम्यग्दर्शन का प्रथम गुण है। २. कांक्षित — निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्वीकार कर फिर किसी भी प्रकार की आकांक्षा करना सम्यक्त्व का दूसरा दोष है और निष्कांक्षित रहना उसका दूसरा गुण है। ३. विचिकित्सिक- निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्वीकार कर किसी भी प्रकार की ग्लानि करना सम्यक्त्व का तीसरा दोष है और निर्विचिकित्सित भाव रखना उसका तीसरा गुण है। ४. भेद-समापन्न होना सम्यक्त्व का अस्थिरता नामक दोष है और अभेदसमापन्न होना यह उसका स्थिरता नामक गुण है। ५. कलुषसमापन्न होना यह सम्यक्त्व का एक विपरीत धारणा रूप दोष है और अकलुषसमापन्न रहना यह सम्यक्त्व का गुण है। . ६. उदार तप:कर्म- आशंसा-प्रशंसा आदि की अपेक्षा न करके तपस्या करना। ७. कल्याण तप:कर्म— आत्मा को पापों से मुक्त कर मंगल करने वाली तपस्या करना। ८. विपुल तपःकर्म- बहुत दिनों तक की जाने वाली तपस्या। ९. प्रयत तपःकर्म- उत्कृष्ट संयम से युक्त तपस्या। १०. प्रगृहीत तपःकर्म- आदरपूर्वक स्वीकार की गई तपस्या। ११. महानुभाग तपःकर्म- अचिन्त्य शक्तियुक्त ऋद्धियों को प्राप्त करने वाली तपस्या। १२. आभ्युपगमिकी वेदना— स्वेच्छापूर्वक स्वीकार की गई वेदना। १३. औपक्रमिकी वेदना- सहसा आई हुई प्राण-घातक वेदना। दुःखशय्याओं में पड़ा हुआ वर्तमान में भी दुःख पाता है और आगे के लिए अपना संसार बढ़ाता है। इसके विपरीत सुखशय्या पर शयन करने वाला साधक प्रतिक्षण कर्मों की निर्जरा करता है और संसार का अन्त कर सिद्धपद पाकर अनन्त सुख भोगता है। अवाचनीय-वाचनीय-सूत्र ४५२- चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा—अविणीए, विगइपडिबद्धे, अविओसवितपाहुडे, माई।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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